प्राण-अपान का रथ
देखो, अग्नि प्रबुद्ध हुई है। क्षितिज से सूर्य उदित हो रहा है। आल्हादक महिमामयी उषा ने ज्योति से तमस को विच्छिन्न कर दिया है। काली निशा विदीर्ण हो चुकी है। सब प्राणी मोहमयी निद्रा का परित्याग कर जाग गए हैं। सविता देव ने जगत को प्रथक-प्रथक अपने-अपने कार्यों में प्रेरित कर दिया है। प्रकृति में चहल-पहल दिखाई देने लगी है। चिड़ियां चहकने लगीं हैं। पशु घास चरने लगे हैं। वनस्पति- जगत् भी सप्राण हो उठा है। तरु लताओं की पत्तियां थिरक रही हैं। पुष्प सुगन्ध बखेर रहे हैं। उपवन सौरभ से महक रहा है।
हे मानव! ऐसे आल्हादमय वातावरण में भी क्या तू सोया ही पड़ा रहेगा? उठ, जाग,अपने अन्दर की तामसिकता की चादर को उतार फेंक। प्राणायाम-रूप अश्वी-युगल तेरे शरीर रथ को प्रयाण के लिए नियुक्त करें। तू सब कर्मों में प्रवृत्त हो। संध्या-वन्दन कर, अग्निहोत्र की अग्नि प्रज्वलित कर, योगांगों का अभ्यास कर, प्राणायाम कर, योगासन कर, समाधि में बैठ, यज्ञ कर, अध्ययन कर, दान कर। अन्य जीव धारियों के शरीर रथ में और तुझ मानव के शरीर रथ में बहुत अन्तर है। कवि ने कहा है कि जो मानव, संगीत एवं कला से विहीन है, वह पुच्छ- विषाण- हीन साक्षात् पशु है। स्वाभाविक रूप से तो प्राण अपान रूप अश्वी-युगल पशु-पक्षी आदियों के शरीर रथ को भी प्रयाण के लिए प्रवृत्त करते हैं। पर मानव को अपनी इच्छा शक्ति का प्रयोग कर उन अश्वी- युगल द्वारा पने रथ को विशेष दिशा में आगे बढ़ाना है। हे मानव! ये अश्वी-युगल- रूप चालक तुझे बड़े भाग्य से मिले हैं, इनका तो सदुपयोग कर, इन्हें तू प्रेरित कर। यह तेरे रथ को वायुयान के चालकों के समान उन्नति की ओर उड़ाए चले जाएंगे। तू उदासीन मत हो, उपेक्षावृत्ति मत धारण कर, बुद्बुद्ध हो, जागरूक बन और प्राण अपान रूप चालकों से रथ को सही दिशा में प्रवृत्त करा।
मन्त्र
अबोध्यग्निज्र्म उदेति सूर्यो,व्युषाश्चन्द्रा
मह्यावो अर्चिषा।
आयुक्षतामश्विना यातवे रथं,प्रासावीद् देव:
सविता जगत् पृथक्।। ऋ•१.१५७.
भजन
जागो जागो नींद से जागो
क्षितिज में सूर्य चमका
उषा ने कर दी विच्छिन्न
घोर तमस की दशा
प्राणी जगत में छाया
समा भी तो चहल-पहल का
जागो..........
सुरभित तरुवर उपवन
लगे झूमने महक भरे
आल्हादक चारु प्रभात
सोये जन जाग पड़े
देह-गतिक रथ चला है
युगल-अश्व प्राणायाम का
प्राणी जगत में छाया
समा भी तो चहल-पहल का।।
जागो.........
योगांगों का कर अभ्यास
आलस को त्वरित तज दें
संध्या और यज्ञ को कर
ओ३म् नाम का जाप करके
पशुओं में ना यह क्षमता
सत्कर्म मानव-साधना
प्राणी जगत में छाया
समा भी तो चहल-पहल का।।
जागो......
कवियों का है काव्य-कथन
है श्रेष्ठ साहित्य संगीत
जो इससे रहा विहीन
मानव पशु बिना पूंछ सींग
साहित्य-संगीत तेरा
भाग्य है आनन्द का
प्राणी जगत में छाया
समा भी तो चहल-पहल का।।
जागो.......
यह प्राण और अपान
पशु-पक्षी भी कर लेते
पर उनकी दिशा सीमित
उत्तरोत्तर हम बढ़ते
अश्वी-युगल मानवों को
देते हैं सोमरस सुधा
प्राणी जगत में छाया
समा भी दो चहल-पहल का।।
जागो......
ऐ अश्वी- युगल ! चालक
उत्तम हो तेरा सौभाग्य
सही कर अपना उपयोग
उन्नति का है साध्य
जागरूक उद्बुद्ध बन तू
अश्वि -रथ को ठीक चला
प्राणी जगत में छाया
समा भी तो चहल-पहल का ।
क्षितिज=वह स्थान जहां पृथ्वी आकाश मिलते दिखाई देते हैं।
विच्छिन्न=अलग किया हुआ
सुरभित=सुगन्धित
देह- गतिक -रथ=शरीर का वेगवान रथ
युगल-अश्व=प्राण के दो बल (प्राण,अपान)
विहीन=अलग, जुदा
उद्बुद्ध=जागृत, ज्ञान प्राप्त