Jiya kab tak ulzhega
भावार्थ :-
हे मन! तुम कब तक इस असार संसार के विकल्पों में उलझोगे। जिन संकल्प और विकल्पों के जाल में उलझकर तुमने अनन्त भव व्यर्थ बिता दिये॥टेक॥
हे मन! मिथ्या मान्यता के कारण यह जीव चारों गतियों में भ्रमण करता रहता है और राग के स्वरुप को अपना मानकर हर पर्याय में दु:ख भोगता है।एक क्षण के लिये भी अपने आत्मा का ध्यान नहीं करता, इस जीव को निज आत्मस्वरुप तो पसंद नही आता और पर पदार्थ की रमणता ही सुहाती है। इस तरह यह संपूर्ण जीवन इन बाहर के झुठे पुरुषार्थ में ही व्यतीत होता जाता है॥1॥
हे चेतन! अब सम्यक् तत्वों का निर्णय कर अपने आत्मा के स्वरुप को देखो जिससे मिथ्यात्व का अभाव हो जायेगा और सुख स्वरुपी सम्यक दर्शन प्रगट होगा तथा इसी सम्यग्दर्शन के द्वारा अंतर परिणति में सम्यकज्ञान व सम्यकचारित्र रुपी रत्नत्रय की प्राप्ति होगी। जिसमे नियम से समस्त दुखों से छुटकारा रुपी मोक्ष की प्राप्ति होगी॥2॥
हे जीवराज! अब शुभ और अशुभ विभावी भावों का त्याग करो, क्योंकि ये सभी आस्त्रव होने से छोडने योग्य हैं। तुम तो संवर को साधन बनाकर अपने चेतन तत्व का अनुभव करो। तुम अनुपम और नित नवीन आनंद देने वाले इस शुद्धात्मा का चिन्तन करो, जिससे कर्मबन्धन की श्रृंखला का अभाव होगा और तुम स्वयं अपने ही पुरुषार्थ से अल्प समय में सिद्ध दशा की प्राप्ति करोगे॥3॥
हे मनुष्य! सुन… तू अभी भी जाग जा, सचेत हो जा तू क्यों पागल पशु की तरह मूर्ख बना हुआ है। अब तू अर्न्तमुख हो जा और अपने ज्ञान की पर्याय में आत्म स्वभाव की महिमा को ला, पराधीनता को छोडकर अपने स्वरुप का आश्रय कर। यदि पर की दृष्टि छोड देगा तो कुछ ही समय मे अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होगी॥4॥
हे चेतन! तू कौन है, तेरा क्या स्वरुप है, और तेरा वास्तविक नाम क्या है, कहां से तू आया है और कहां तुझे जाना है? क्या कभी कुछ समय निकालकर तुने इन सब बातों पर विचार किया है कि यह शरीर तो जड पुद्गल का बना हुआ है और कुछ समय मात्र के लिये ही इसका साथ है। तुम तो स्वयं अतुल बल के धनी चेतन द्रव्य हो इसलिये जड पदार्थों को छोडकर निर्विकल्प सुख को शीघ्र प्राप्त करो॥5॥
हे जीव! यदि अब भी यह मनुष्य पर्याय का दुर्लभ अवसर चला गया तो तुझे न जाने कितने भवों तक पछताना पडेगा और फ़िर अनन्त काल तक भयंकर दु:खों को भोगना पडेगा। यदि इस दुर्लभता से प्राप्त मनुष्य पर्याय का सदुपयोग नहीं किया तो पता नहीं तुझे कौनसी गति प्राप्त होगी और यदि पुण्योदय से मनुष्य पर्याय प्राप्त भी हो गई तो जिनकुल और जिनवाणी प्राप्त नहीं होगी और फ़िर से अनन्त जन्मों और अनन्त कालों तक तुझे इस संसार में भटकना पडेगा॥6॥
Nitya bodhini maa jinvani:
भावार्थ :-
हे! नित्य ज्ञान कराने वाली माता जिनवाणी आपके चरणों में सादर वन्दन करता हुं। हे माता! इस संसार में भ्रमण करते - करते हम हार गये। अब आपसे प्रार्थना हैं कि हमारे इन भवों-भवों के दु:खों का अन्त कर दो ॥टेक॥
मैं अनादि काल से ही मोह नींद की बेहोशी में मस्त सोता रहा और इसके कारण परद्रव्यों-परसंयोगों में आसक्त बुद्धि रखकर सारा समय उनके संग्रह में ही लगा रहा। मैं व्यर्थ में ही परद्रव्यों में सुख की खोज करता रहा और इसमे मेरा सारा चिंतन-मनन व्यर्थ ही हो गया॥1॥
अनेकांत बोधक जिनवाणी माता ने इस जगत को मोक्ष का मार्ग दिखाकर, सात तत्व और छह द्रव्यों का सम्यक ज्ञान करवाया है। अब हम भी जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताये गये मार्ग पर चलकर इस संसार के बंधनों का नाश करेंगे ॥2॥
द्वादशांगमय जिनवाणी माता सदैव शुद्धात्म स्वरुप को दिखाने वाली है तथा इसी वाणी को अपनाकर अनेक जीव ज्ञानी और मुनि बने हैं, अत: हे जिनवाणी मां! हम आपको बारम्बार नमन करते हैं और भावना भाते हैं कि आप सदैव जयवन्त रहो ॥3॥
Sun chetan ek baat hamari:
भावार्थ :-
हे चेतन प्राणी! हमारी एक बात को ध्यान से सुनो! अरे तुम तो तीन लोक के स्वामी हो और फ़िर भी तुम इन्द्रिय विषय भोगों में लुब्ध होकर दरिद्री बनकर दुखी हो रहे हो॥1॥
अरे चेतन! तुम तो बहुत चतुर हो, सयाने हो, वह तुम्हारी चतुराई कहां गई? थोडे से इन्द्रिय-विषयों के सुख के कारण, शाश्वत रहने वाली ऋद्धि को तुमने गवां दिया है॥2॥
इन्द्रिय-विषयों के सेवन में राई जितना भी सुख नही है।उल्टा इनके सेवन करने में मेरु पर्वत के समान महादु:ख है। अरे मुर्ख! तब भी तू इन विषयों से लिपटा हुआ है, यह तुने कैसा सयानापन किया है॥3॥
इस अस्थिर जगत में कुछ भी स्थिर नही रहता है तो तू सदा काल रहेगा तूने ऐसा क्यों मान लिया? प्रकट में संयोगों को जाता देखकर भी तुझे ख्याल नहीं आता, लगता है कि तुने भांग खा रखी है जिससे तेरी सोचने -समझने की शक्ति क्षीण हो गई है॥4॥
इस जगत में दु:ख सहते-सहते तुम्हें अनन्तकाल व्यातीत हो गये तब भी तुझे भान नही हुआ कि ये इन्द्रियां विषय और कषाय ही तेरे महान शत्रु है॥5॥
जगत में यश , लाभ और पुजा (मान) के लिये तुने अपना यह बाहर का वेश बना रखा है। तुने परमतत्व को अर्थात् वस्तु स्वरुप को तो समझा नही और व्यर्थ में ही अनादिकाल से समय गंवाता जा रहा है॥6॥
यह दुर्लभ नर देह को पाकर तुमने क्या कार्य सम्पन्न किया? स्त्री-पुत्र और धन -सम्पदा के लिये तुने अमुल्य जिन धर्म को गंवा दिया॥7॥
ज्ञानी जीवों को घट-घट में, प्रत्येक देह में अनन्त शाक्तिशाली आत्मा दिखाई देती है पर मुर्ख उसे समझ नहीं पाते। जैसे अपनी नाभि मे रखी कस्तुरी की सुगन्ध से अनजान मृग उसके लिये सभी दिशाओं में दौडता फ़िरता है॥8॥
घट-घट में आत्मा विधमान होने पर भी उसका स्वरुप घट से अलग है तथा वह घट में रहकर भी घट से भिन्न है। जिस प्रकार घूघंट को हटाने के बाद स्त्री का सुंदर मुख दिखाई देता है वैसे ही जब यह जीव इस घट अर्थात् देह से भिन्न आत्म तत्व को दृष्टिंगत करता है तब उसको निज आत्मस्वरुप के दर्शन होते हैं॥9॥
कवि धानतरायजी कहते हैं कि जो अपने मन को निर्मलकर मन इन दस पदों को सुनते और धारण करते हैं वे संसार समुद्र से पार होकर मुक्ति रुपी लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं॥10॥
मैंने देखा आतमरामा... MAINE DEKHA ATAMRAMA:
भावार्थ :-
ज्ञानी जीव ऐसा कहते है कि मैनें आतमराम को देख लिया अर्थात् उसका अनुभव कर लिया हैं॥टेक॥
कैसा है वह आतम- स्पर्श, रस, गंध और वर्ण से रहित दर्शन, ज्ञान आदि गुणों का धाम हैं और क्रोध, मान और माया आदि कषाय परिणामों की कालिमा से रहित होने से सदा पवित्र ही है॥1॥
और जिसको भुख-प्यास, सुख-दु:ख आदि की व्याधि नहीं है तथा न ही उसके पास वन, नगर और गावं रुपी परिग्रह हैं। मेरी आत्मा का कोई स्वामी नहीं, कोई नौकर नहीं और न ही पिता या मामा जैसे कोई सम्बधी हैं॥2॥
बुधजन कवि कहते हैं कि अनादि काल से इस पुद्गल द्रव्य की प्रीति के कारण संसार में भटकते हुये अब मैं थक गया हुं। अत: अब, जब मैनें वीतरागी भगवन्तों और श्री मुनिराज की संगति की तो मुझे मेरा आत्मा अर्थात् मेरा निज स्थान मिल गया॥3॥
Jab jeevan ka ant ho: