ज्योतिष एवं खगोल विद्या का विकास
भारतीय ज्योतिष का इतिहास भी अत्यन्त प्राचीन है। वेदों को भलीभाँति समझने के लिये जिन छः वेदांगों की रचना की गयी थी, उनमें अंतिम ज्योतिष है। यह यज्ञ-याग के उचित समय का नर्देश करता है। इसके लिये समय-शुद्धि की महती आवश्यकता होती थी।
यज्ञ के कुछ विधानों का संबंध संवत्सर तथा ऋतु से भी होता था। नक्षत्र, तिथि, पक्ष, माह का भी निर्धारण यज्ञ के लिये आवश्यक था। इन सबका ज्ञान ज्योतिष के ज्ञान के बिना संभव नहीं था। यह बताया गया है, कि ज्योतिष को भलीभाँति जानने वाला व्यक्ति ही यज्ञ का यथार्थ ज्ञाता होता है। इस प्रकार प्राचीन ज्योतिर्विद्या का उद्देश्य समय-समय पर होने वाले यज्ञों का मूहुर्त एवं काल निर्धारित करना था। उस काल की आवश्यकताओं के लिये यह पर्याप्त था।
गुप्तकाल के पूर्व भारतीय ज्योतिष के विषय में हमारी जानकारी अति अल्प है। संभवतः प्राचीन काल के भारतीय ज्योतिष ज्ञान पर मेसोपोटामिया का प्रभाव था। ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से ज्योतिष पर यूनानी प्रभाव के विषय में स्पष्ट सूचना मिलने लगती है। वृहत्संहिता में यवनों को ज्योतिष का जन्मदाता होने के कारण ऋषियों के समान पूज्य बताया गया है। भारतीय ग्रंथों में ज्योतिषियों के पाँच सिद्धांतों – पैतामह, वाशिष्ठ, सूर्य, पौलिश तथा रोमक उल्लेखित हैं। इनमें अंतिम दो की उत्पत्ति यूनान से मानी गयी है। रोमन सिद्धांत के संबंध में वाराहमिहिर ने जिन नक्षत्रों का उल्लेख किया है, वे यूनानी लगते हैं। पौलिश सिद्धांत सिकन्दरिया के प्राचीन ज्योंतिषी पाल के सिद्धांतों पर आधारित प्रतीत होता है। ज्योतिष के माध्यम से यूनानी भाषा के अनेक शब्द संस्कृत तथा बाद की भारतीय भाषाओं में प्रचलित हो गये।
गुप्त काल में संस्कृत के अन्य पक्षों के साथ- साथ ज्योतिष एवं खगोल विद्या का भी सर्वांगीण विकास हुआ। इस समय तक खगोल विद्या का अध्ययन इतना अधिक लोकप्रिय हो गया था, कि कालिदास जैसे कवियों ने भी इसका अनेकशः अल्लेख किया। गुप्तकाल के इतिहास-प्रसिद्ध ज्योतिषी आर्यभट्ट प्रथम एवं वराहमिहिर हैं। आर्यभट्ट प्रसिद्ध खगोलविद् होने के साथ – साथ महान गणितज्ञ भी थे। आर्यभट्ट का जन्म पाटलिपुत्र में 476 ई. के लगभग हुआ। 23 वर्ष की आयु (499ई.)में उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ आर्यभट्टीयम् की रचना की थी। ज्योतिष के प्रगति की निश्चित एवं प्रत्यक्ष जानकारी हमें इसी ग्रंथ से मिलती है।
आर्यभट्ट प्रथम ज्योतिष पर लेखनी उठाने वाले प्राचीनतम ज्ञात ऐतिहासिक व्यक्ति थे। निःसंदेह वे भारत द्वारा उत्पन्न महान वैज्ञानिकों में से हैं। उन्हें सिकन्दरिया के यूनानी ज्योतिषियों के प्रमुख सिद्धांतों और निष्कर्षों का अच्छा ज्ञान था। साथ ही साथ अपने भारतीय पूर्व सूरियों के ग्रंथों तथा पद्धतियों का भी उन्होंने ध्यानपूर्वक अध्ययन किया था। तथापि आर्यभट्ट ने किसी का भी अंधानुकरण नहीं किया तथा सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से रहित होकर अपने निष्कर्षों का प्रतिपादन किया। वे लिखते हैं, कि मैंने खगोलीय सिद्धांतों के सच्चे-झूठे समुद्र में गहरी डुबकी लगायी तथा अपनी बुद्धि रूपी नौका के माध्यम से सच्चे ज्ञान की मूल्यवान निमज्जित मणि का उद्धार किया। स्पष्टतः उनके निष्कर्ष स्वयं के निरीक्षणों एवं अन्वेषणों पर आधारित थे। सिकन्दरिया के खगोल सम्प्रदाय के निष्कर्षों का भी आर्यभट्ट ने अन्धानुकरण नहीं किया अपितु अपने अन्वेषणों एवं निरीक्षणों द्वारा उनमें परिष्कार भी किया। उनके मन में भारतीय धर्मशास्त्रों – श्रुति, स्मृति, पुराण आदि के प्रति सम्मान था, लेकिन इनके द्वारा प्रतिपादित इस मान्यता को मानने से उन्होंने इन्कार कर दिया कि सूर्य एवं चंद्र ग्रहणों का कारण राहु और केतु जैसे असुर हैं। उन्होंने यह मत दिया कि चंद्र या सूर्य ग्रहण चंद्रमा पर पृथ्वी की छाया पङने से अथवा सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा के आ जाने से लगते हैं।
आर्यभट्ट पहले भारतीय खगोलशास्त्री थे, जिन्होंने यह खोज की कि पृथ्वी गोल है तथा अपने यक्ष के चारों ओर परिभ्रमण करती है, सूर्य स्थित है, तथा पृथ्वी गतिशील है, चंद्रमा तथा दूसरे ग्रह सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं, उनमें स्वयं कोई प्रत्यक्ष प्रकाश नहीं होता है। उन्होंने ही जीवों के फलनों का पता लगाया। तथा खगोल के लिये उनका उपयोग किया, दो क्रमागत दिनों की अवधि में वृद्धि या कमी को नापने के लिये सटीक सूत्र प्रस्तुत किया, ग्रहीय गतियों के विवरण की व्याख्या के लिये अदिचक्रीय सिद्धांत की स्थापना की, चंद्र की कक्षा में पृथ्वी की छाया के कोणीय व्यास को शुद्ध रूप में प्रकट किया। उन्होंने यह निश्चित करने के भी नियम बनाये कि किसी ग्रहण में चंद्रमा का कौन सा भाग आच्छादित होता है तथा ग्रहण की अवधि में अर्धांश तथा पूर्ण ग्रास का ज्ञान किस प्रकार किया जा सकता है। आर्यभट्ट ने वर्ष लंबाई 365.2586805 दिनों की बताई। यह टॉलमी द्वारा मान्य लंबाई 365.2631579 दिनों की यथार्थ अवधि के सन्निकट है। सूर्य की पराकाष्ठा के देशान्तर तथा चंद्र के पातों के नक्षत्र काल विषयक उनके विचार भी सही हैं। ये सभी खगोल क्षेत्र में उन्नत ज्ञान के परिचायक हैं, किन्तु यह खेद का विषय है, कि हम उन पद्धतियों तथा परीक्षणों के बारे में कुछ भी नहीं जानते, जिन्होंने इन उपलब्धियों को सुगम बनाया। दूरवीक्षण यंत्र के ज्ञान के अभाव में खगोल क्षेत्र में इतनी उच्चकोटि की उपलब्धि सचमुच आश्चर्य की बात कही जायेगी। पाश्चात्य जगत कोपरनिसस (1473-1543 ई.) को ब्रह्माण्ड के सूर्य केन्द्रिक सिद्धांत का अन्वेषक मानता है, जबकि इसके शताब्दियों पूर्व भारतीय खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने इस सिद्धांत का पता लगाकर ब्रह्माण्डीय गतिविधियों का केन्द्र सूर्य को घोषित कर दिया था। आर्यभट्ट के बाद उनके शिष्यों – निःशंक, पाण्डुरंगस्वामी तथा लाटदेव द्वारा उनके सिद्धांतों की व्याख्या प्रस्तुत की। उन्हें स्रव सिद्धांत गुरु भी कहा जाता है।
आर्यभट्ट के बाद भीरतीय ज्योतिषियों में वाराहमिहिर (छठीं शताब्दी) का नाम उल्लेखनीय है।यदि आर्यभट्ट गणित ज्योतिष के प्रवर्त्तक थे, तो वाराहमिहिर फलित ज्योतिष के प्रणेता के रूप में स्मरणीय है। वे उज्जयिनी के निवासी तथा आदित्यदास के पुत्र थे। उनका गणित ज्योतिष संबंधी प्रसिद्ध ग्रंथ पंचसिद्धांतिका है, जिसमें ईसा की तीसरी-चौथी शती में प्रचलित ज्योतिष के पाँचों सिद्धांतों – पैतामह, वाशिष्ठ, रोमक, पौलिश तथा सूर्य – का उल्लेख मिलता है। पंचसिद्धांतिका के प्रथम खंड में खगोल विज्ञान पर प्रकाश डाला गया है। ब्रह्माण्डीय पिण्डों का अस्तित्व, उनका परस्पर संबंध तथा प्रभाव संबंधी वाराहमिहिर का ज्ञान आज भी हमें चमत्कृत कता है। इनमें मात्र सूर्य सिद्धांत संबंधी पाण्डुलिपि तथा टाकायें ही इस समय प्राप्त हैं।
वाराहमिहिर ने विज्ञान की उन्नति में कोई मौलिक योगदान तो नहीं दिया, किन्तु पंचसिद्धांतिका लिखकर उन्होंने ज्योतिष का बङा उपकार किया। यदि यह ग्रंथ न मिलता तो ज्योतिष शास्त्र का इतिहास ही अपूर्ण रहता। पंचसिद्धांतिका के अलावा वाराहमिहिर ने कुछ अन्य ग्रंथों – बृहज्जातक, बृहत्संहिता तथा लघुजातक की भी रचना की थी। ये फलित ज्योतिष की चनायें हैं। पौधों में होने वाले विभिन्न रोगों तथा उनके उपचार के क्षे6 में भी उन्होंने बङा काम किया। विभिन औषधि के रूप में पौधों के गुणकारी उपयोग संबंधी उनके शोध आयुर्वेद की अमूल्य निधि है। वृहत्संहिता, ज्योतिष, भौतिक भूगोल, वनस्पति तथा प्राकृतिक इतिहास का विश्वकोश ही है।
आर्यभट्ट तथा वाराहमिहिर के बाद भारतीय ज्योतिषियों में ब्रह्मगुप्त का नाम प्रसिद्ध है। इनके प्रसिद्ध ब्राह्मस्फुट सिद्धांत के कुल चौबीस अध्यायों में से बाइस ज्योतिष से संबंधित है। खंड खाद्यक इनका दूसरा ग्रंथ है। ब्रह्मगुप्त को इस बात का श्रेय जाता है, कि अरबों में ज्योतिष का प्रचार सर्वप्रथम उन्होंने ही किया। उनके ग्रंथों का अल्बरूनी द्वारा अनुवाद किया गया। उनके सिद्धांतों का विदेशों में बङा सम्मान था। साचो के अनुसार प्राच्च सुधार के इतिहास में ब्रह्मगुप्त का स्थान अत्यन्त ऊँचा है। टॉलमी के पूर्व उन्होंने ही अरब के निवासियों को ज्योतिष का ज्ञान सिखाया था।
भारतीय खगोलशास्त्री अच्छे गणितज्ञ भी थे तथा इस विषय में उनका ज्ञान यूनानियों की अपेक्षा अधिक था। गणित के माध्यम से ही भारतीय खगोलविद्या यूरोप पहुँचायी गयी। सातवीं शती के सीरियाई ज्योतिषविद् सिविरस सिवोख्त को इसकी महानता का ज्ञान तथा बगदाद के खलीफा ने अपने यहाँ भारतीय खगोलविदों को नियुक्त कर रखा था। मध्यकालीन यूरोपीय खगोलशास्त्र में प्रचलित शब्द आक्स (ग्रहपथ क सर्वोच्च स्थान)निश्चित रूप से संस्कृत के उच्च से लिया गया है।
Development of astrology and astronomy in ancient India.pdf
The_Vedic_Tradition_Cosmos_Connections_a.pdf
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