Karm Phal/ Handicap

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विकलांगों के प्रति सद्भाव रखो

क्या तुम किसी विकलांग को देखकर सहानुभूति से द्रवित होने के स्थान पर कठोर हो जाते हो?

क्या तुम सोचते हो कि विधाता ने इन्हें सजा देने के लिए अपंग बनाया है?तो सोचो यदि तुम्हारा अपना कोई संबन्धी विकलांग होता तो क्या तुम उसके लिए भी कठोर होते और बुरा व्यवहार करते? फिर किसीलूले,लंगड़े,अन्धे,काने, बहरे,कुष्ठरोगी आदि को देखकर आंखें क्यों नहीं भरआतीं,हृदय क्यों नहीं भर आता? ममता क्यों नहीं उठती?सहायता का भाव क्यों नहीं उठता?

तुम उस बेचारे को मुंह पर ही अन्धा कहके,पहले से दुखी को और दुःख पहुंचाते हो।जले पर नमक छिड़कते हो।क्या ऐसा करने पर तुम्हें आनन्द आता है?

सोचो कभी तुम्हारी बेटी बिना आंखों वाली होती तो क्या मुंह से ओह अन्धी शब्द निकलता?

नहीं तुम उसे प्यारी रानी बेटी कहते,उसके सारे कष्ट अपने उपर लेते,उसे गले लगाते उसकी शादी के लिए दिन रात एक कर देते।और जो उससे विवाह करता उसके चरणों में गिर जाते।उसे शत-शत साधुवाद देते।

तो क्या ऐसी ही भावना सबके लिए नहीं होनी चाहिए क्या इतना भी स्वार्थी होना मानवता है? नहीं मानवता कैसे हो सकती है?

अत:आओ आज से प्रण कर लो कि विकलांगों की सहायता करेंगे,ममता के भाव जगाएंगे। खुद भी सहायक बनेंगे और विकलांगों के लिए आतुरालय,शिक्षणालय आदि खुलवाकर,समाज और राष्ट्र से भी सहायता दिलाने का प्रयत्न करेंगे तो उनके प्रति जो ऋण है उससे ऋण-मुक्त हो सकेंगे।

यही सच्ची मानवता है।


कर्म प्रधान जहान

पता है पाप क्या होता है? कुकर्म क्या होता है? मनु महाराज कहते हैं--(नानृतात्पातकं परम्) झूठ से बढ़कर गिराने वाला पाप कोई नहीं है। पातक कहो, पाप कहो एक बात है। पातक जितने हैं प्रायः उनमें दूसरों के साथ संबंध अवश्य होता है।हिंसा, जब तक हिंस्य ना हो, नहीं हो सकती।बोलना दूसरे के साथ होता है, मिथ्या= बोलने में भी दूसरे की, श्रोता की आवश्यकता पड़ती है। चोरी पराये माल की होती है। ब्रह्मचर्य -नाश मैथुन में भी दूसरा चाहिए।
दूसरा ना हो तो अभिमान क्या और किस के आगे करें !
पाप के आचार से पहले पाप का विचार होता है। विचार अपने मन में होता है उसको वाणी से उच्चार कर दूसरों तक पहुंचाते हैं। वेद कहता है--विचार हर एक को ना दो,किन्तु (दधात यज्ञियेष्वा)जिसमें परोपकार भावना है, यज्ञ- भावना से जो भावित है, ऐसे सदाचारी धर्मात्मा सज्जनों को विचार दो।
किन्तु वह मंत्र --विचार अखर्व हो=क्षुद्र ना हो। क्षुद्र (गिरे हुए) विचारों से संकीर्णता उत्पन्न होती है, उससे स्वार्थ उत्पन्न होकर समाज भावना का विनाश होता है। उच्चासन के भावों से भरपूर विचार ही संसार के लिए कल्याणकारक होते हैं। साथ ही वह सुधित=सुचिन्तित होना चाहिए। ऐसा नहीं कि जो विचार आया झट से उच्चारण कर दिया। नहीं, उसे सोचिए, उसके अनुकूल प्रतिकूल सारे पहलुओं पर गंभीरता से विचार कीजिए। जिसको विचार देने लगो, देख लो कि उसने इसे भली-भांति धारण कर लिया है, समझ लिया है ? अन्यथा,यह अपनी अधम बुद्धि से हानि करेगा। जब कोई विचार देने लगे उसकी भाषा ललित हो, उसके समझाने का ढंग मनोहारी हो। उसे इस रूप में जनता के आगे रखो जिससे वह स्वयं आकृष्ट हो। सुंदरता सभी को प्रिय है।भगवान भी सत्य और शिव होते हुए सुंदर हैं। वेद के शब्दों में भगवान स्व:= सुंदर सत्तावान हैं। भगवान ने सृष्टि में कितना सौन्दर्य भर दिया है !कितना रूपवान बनाया है ! तुम क्यों भद्दी सृष्टि रचो? तुम्हारी सृष्टि भी सुंदर होनी चाहिए। जब किसी को विचार देने लगते हैं तब भी कर्म हो जाते हैं। कर्मों को अनेक ज्ञानी बंधन का कारण मानते हैं। कुछ सीमा तक यह बात भी सत्य है। पशु पक्षी की पतंग आदि कदम योनियों में पड़े, ज्ञान के प्रकाश से रहित हुए विवशता का जीवन बिता रहे हैं, और नाना दु:ख पा रहे हैं, यह क्यों ? जब इन्हें कर्म की स्वतंत्रता थी तब स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके कुकर्म किए उसका फल वर्तमान दुर्दशा है। उसका कर्म से बंधन मिला कर्म ही से वह कटेगा अतः वेद कहता है( पूर्वाश्चन प्रसितयस्तरन्ति तो यह इन्द्रे कर्मणा भुवत्।)पहले के बंधन उसे छोड़ते हैं, जो प्रभु के निमित्त कर्म से समर्थ होता है। वासना बंधन का कारण है, जो सांसारिक वासनाओं से वासित होकर कर्म करेगा, वह बंधन में पड़ेगा, अतः सांसारिक वासनाओं को त्यागो। अब जो कर्म करो, प्रभु के निमित्त करो, अर्थात् अपने-आप को भगवान का हथियार बना लो। अब सब इच्छाएं,आकांक्षाएं, अभिलाषाएं छोड़ दो, जो प्रभु कराए वह करो। प्रभु के कराने से कर्म होने में कि एक पहचान है-- ऐसा कर्म कर्ता हानि लाभ से विचलित नहीं होता। क्योंकि उसे विश्वास होता है कि प्रभु जो करते हैं, भला करते हैं। जाने, प्रतीयमान हानि में कोई गहरा लाभ छिपा हो ! वेद जीवनभर करने का ही नहीं, कर्म करते हुए जीने की इच्छा का आदेश करता है । (कुर्वननेवेह कर्माणि....यजुर्वेद 40/2) इस संसार में मनुष्य आयुभर कर्म करता हुआ जीने की इच्छा करे। इस भान्ति तुझमें कर्म लिप्त नहीं होंगे,अर्थात् बंधन का कारण नहीं बनेंगे। इसके अतिरिक्त कोई साधन नहीं है।
यहां कुकर्म और अकर्म का निषेध किया जा रहा है । कर्म किए बिना रहना प्राणी के लिए सर्वथा असंभव है। ऐसी अवस्था में रानी को अपना कर्तव्य विचार ना चाहिए। उसका विचार करके उस पर आरूढ़ हो जाए । कर्तव्य ज्ञान वेद से होगा। वेद भगवान की वाणी है। वेद अनुसार कर्म करने वाला मनुष्य यह सोचे कि मैं प्रभु के आदेश का पालन कर रहा हूं। ऐसी निष्ठा भावना से कर्म करने वाला सच में भगवान का करण= यानी उपकरण बन जाता है।
प्रभु निमित्त कर्म को निष्काम कर्म कहते हैं। अपना आपा भुलाए बिना यह लगभग क्या सर्वथा असंभव है अपना आपा भुलाना यानी आत्मा विस्मरण, आत्मसमर्पण के बिना अशक्य है। कर्म की महिमा बताते हुए भी वेद का संकेत उसी और है । कोई है जो इस सत्य को ग्रहण करें।

"जीवन कैसे जीना है, यह तो आपके हाथ में है। परंतु मृत्यु कब कहां और कैसे होगी, यह आपके हाथ में नहीं है।"
कहा जाता है, कि "व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है, और फल भोगने में परतंत्र है।" अर्थात कर्म करना हमारे अधिकार में है। क्योंकि हम अपनी स्वतंत्रता से अच्छे बुरे कर्म कर सकते हैं। "कर्म करते समय ईश्वर हमारा हाथ नहीं पकड़ता। परंतु उन कर्मों का फल कब कहां क्या और कैसे मिलेगा, यह हम नहीं जानते और अपने कर्मों का फल लेने में हम सक्षम भी नहीं हैं। अतः फल देने की व्यवस्था, ईश्वर के अधिकार में है।"
बहुत से लोग ऐसा कहते हैं, कि "जन्म और मृत्यु भगवान के हाथ में है।" मोटे तौर पर यह बात ठीक सी लगती है। परंतु इसको और अच्छी तरह से, गहराई से समझना चाहिए।
"हम जैसा जैसा कर्म करते हैं, उसके अनुसार ईश्वर हमें अगला जन्म देता है। हमें जो जन्म मिलता है, वह हमारे कर्मों का फल है।" अब फल देना ईश्वर के अधिकार में है। इसलिए हमें कब कहां जन्म कौन सा जन्म मिलेगा, इसका सीधा-सीधा निर्णय तो हम नहीं कर पाएंगे। जन्म तो ईश्वर ही देगा। परन्तु इस प्रसंग में यह भी समझना चाहिए, कि "ईश्वर अपनी मनमानी से कर्म का फल नहीं देता। हम जैसा कर्म करते हैं, उसी के आधार पर वह हमें कर्मों का फल देता है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि कौन सा जन्म हमें प्राप्त करना है, यह बात परोक्ष रूप से हमारे हाथ में ही है।"
जैसे एक विद्यार्थी परीक्षा में जितने अच्छे उत्तर लिखता है, परीक्षक उसे उतने ही अच्छे अंक देता है। "तो एक विद्यार्थी परीक्षा में कितने अंक लाना चाहता है, परोक्षरूप से यह उसके अधिकार में ही है।" परीक्षक तो केवल निर्णय देगा, कि "आपने इतने अच्छे उत्तर लिखे, आप को इतने अंक दिए जाते हैं।" और परीक्षक अपनी मनमानी से कोई निर्णय नहीं देगा। जैसे उत्तर विद्यार्थी ने लिखे हैं, उसी के आधार पर वह विद्यार्थी को अंक देगा।
इसी प्रकार से हम और आप भी विद्यार्थी हैं, परीक्षा दे रहे हैं। ईश्वर हमारा परीक्षक है। हम जैसे कर्म करेंगे, वह उसी के आधार पर हमें फल देगा, अपनी मनमानी से नहीं देगा। "इस दृष्टिकोण से यदि देखा जाए, तो हमें आगे कौन सा और कैसा फल (जन्म) लेना है, वह हमारे हाथ में ही है। हम जैसे कर्म करेंगे, ईश्वर हमारे उन कर्मों के आधार पर हमको वैसा ही अगला जन्म दे देगा।" "केवल 'देना' ईश्वर के अधिकार में है।"
दूसरी बात -- मृत्यु भी हमारे कर्मों के आधार पर ही ईश्वर देता है। "ईश्वर हमारे कर्मों के आधार पर हमारी मृत्यु के समय का सामान्य निर्धारण कर देगा। फिर भी अनेक दुर्घटना आदि कारणों से मृत्यु का वह समय आगे पीछे हो सकता है।"
एक उदाहरण -- जैसे आपने किसी दुकानदार को ₹20,000/- दिए, तो दुकानदार आपको ₹20,000/- मूल्य की वस्तु दे देगा। वह वस्तु जितनी मजबूत होगी, उतने समय तक चलेगी, और उतने समय तक आपको लाभ देगी। "उसकी मजबूती सीमित है। इसलिए उसकी विद्यमानता का भी एक समय सामान्य रूप से निर्धारित होगा। उसके बाद वह वस्तु नष्ट हो जाएगी।"
"परन्तु जब तक उसके नष्ट होने का समय नहीं आया, उससे पहले भी कोई दूसरा व्यक्ति उस वस्तु को नष्ट कर सकता है, तोड़फोड़ सकता है। वह उसकी स्वतंत्रता है। अथवा आप चाहें तो स्वयं भी उस वस्तु को नष्ट कर सकते हैं।"
इसी प्रकार से मान लीजिए, "ईश्वर ने किसी को पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर 80 वर्ष की आयु दी। वह 80 वर्ष की पूरी आयु तक भी जी सकता है, और आयु पूरी होने से पहले भी कोई दूसरा व्यक्ति चोर डाकू लुटेरा आदि उसको मार सकता है। गोली बम आदि किसी भी अन्य प्रकार से उसकी आयु छीन सकता है। कोई ट्रक ड्राइवर दुर्घटना में उस व्यक्ति को मार सकता है।" ऐसे कितने ही प्रकार से किसी की भी मृत्यु कभी भी कहीं भी हो सकती है। अपनी मूर्खता से वह आत्महत्या कर के स्वयं भी मर सकता है। (ऐसा करना भारतीय तथा ईश्वरीय संविधान में अपराध है। अतः आत्महत्या करनी नहीं चाहिए।) "आयुर्वेद में लिखा है कि 101 प्रकार से मृत्यु हो सकती है। इसलिए मृत्यु का दिन समय स्थान कुछ भी निश्चित नहीं है। यदि कोई दुर्घटना आदि नहीं हुई, तो वह व्यक्ति अपनी पूरी आयु अर्थात 80 वर्ष तक जीएगा ही।"
परंतु मृत्यु का दिन समय स्थान आदि कुछ भी पूर्व निश्चित न होने से हम नहीं कह सकते, कि किस की मृत्यु कब कहां कैसे होगी। "अतः इस रूप में, तुरंत अगला जन्म कौन सा प्राप्त करना और मृत्यु होना, साक्षात रूप से ये दोनों ही हमारे अधिकार में नहीं हैं। परोक्ष रूप से हमारे अधिकार में हैं।"
परंतु इस जन्म और मृत्यु के बीच में जो जीवन जीना है, जो कर्म करने हैं, वे तो निश्चित रूप से हमारे अधिकार में हैं। "जैसे यज्ञ करना ईश्वर की उपासना करना सेवा करना दान देना परोपकार करना आदि अच्छे कर्म। अथवा झूठ बोलना चोरी करना अन्याय करना धोखा देना इत्यादि बुरे कर्म। इन अच्छे बुरे कर्म को करना हमारे अधिकार में है, क्योंकि हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं।"
"अतः अच्छे कर्म करें। बुरे कर्मों से बचें।" यह व्यवस्था आपकी है। मृत्यु के आने से पहले बहुत से अच्छे अच्छे कर्म जमा कर लें, जिससे कि आपका अगला जन्म उत्तम योनि में = मनुष्य योनि में सुरक्षित हो जाए।"


कर्मफलों का भोग
आत्मा अजर अमर है। नाइस से शास्त्र काट सकते हैं, अग्नि दग्ध कर सकती है, न जल गला सकता हैं, ना पवन शुष्क कर सकता है। यह अच्छेद्य है, अदाह्य है,अक्लेद्य है,अशोष्य है। तो भी जब यह स्थूल शरीर से पृथक् होता है, तब वह इसकी प्रथम मृत्यु कहलाती है। द्वितीय मृत्यु प्रलय- काल में होती है, जब सूक्ष्मा शरीर भी इससे छिन जाता है। यह कर्मानुसार विविध शरीरों में जन्म लेता है और जैसे जीरन वस्त्रों जीर्ण वस्त्रों को छोड़कर मनुष्य नवीन वस्त्र पहनता है, वैसे ही पुराने-पुराने शरीरों को छोड़कर नए-नए शरीर धारण करता है। देहधारी जीवात्मा द्वारा किए जाने वाले कर्म तीन श्रेणियों में विभक्त हो सकते हैं--पुण्य कर्म, पाप कर्म और मिश्रित कर्म। प्रथम श्रेणी में निष्काम भाव से किए जाने वाले वे पुण्य कर्म आते हैं, जिन्हें मनुष्य फल- इच्छा से नहीं करता, किंतु ईश्वर-अर्पण बुद्धि से करता है। वह जो कुछ क्रिया करता है, खाता है, होम करता है, दान देता है, तपस्या करता है, सब में उसका प्रभु अर्पण भाव अक्षुण्ण रहता है। वह जीवन मुक्त हो शरीर छूटने के बाद मोक्ष पा लेता है। दूसरी श्रेणी के कर्म वे पाप कर्म हैं, जिन्हें शास्त्रकारों ने पातक और महापातक कहा है, जिनमें हिंसा, स्तेय, वंचन, परपीड़न, सुरा -पान, का अभक्ष्य भक्षण, कन्या विक्रय, उत्कोच ग्रहण, व्यभिचार आदि आते हैं। इन पाप कर्मों के फलस्वरूप जीवात्मा पशु- पक्षी, जलचर, कीट- पतंग आदि की भोग योनियों में जन्म लेता है।
तीसरी श्रेणी पुण्यापुण्य-मिश्रित कर्मों की है। पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्म करने पर यह मनुष्य योनि प्राप्त होती है, जो भोग -योनि और कर्म -योनि भी है। इसमें आकर आत्मा पूर्व कृत कर्मों का सत्फल तथा पापकर्मों का अस्त्फल भोगता है। ऐसे योनि में वह जो भी करना करता है उनमें से भी कुछ का फल उसे इसी जीवन में प्राप्त हो जाता है और कुछ आगामी जन्म में फल- भोग के लिए सुरक्षित हो जाते हैं। कभी-कभी पुण्य कर्ता लोग भी घोर कष्ट पाते दृष्टिगोचर होते हैं, इसका कारण यही है कि वे कष्ट पूर्व जन्म के कर्मों के फल हैं। कि सजनवा में जो पुण्य कर्म वह कर रहे होते हैं, उनका फल उन्हें भविष्य में इसी जन्म में, अथवा आगामी जन्म में मिलना होता है।
आओ, ऊपर कहे गए कर्मों में से हम निष्काम और सकाम पुणेकर वही करें, जिससे मुख्य प्राप्ति के अधिकारी हों अथवा मनुष्य योनि पाकर शुभ फलों को भोगें।
वैदिक मन्त्र
प्रथमेन प्रमारेण त्रेधा विष्वङ् वि गच्छति
अद एकेन गच्छति,अद एकेन गच्छति,इहैकेन निषेवते।। अथर्व•११.८.३३



जन्मों का कर्ज

      एक सेठ जी बहुत ही दयालु थे। धर्म-कर्म में यकीन करते थे। उनके पास जो भी व्यक्ति उधार माँगने आता वे उसे मना नहीं करते थे। सेठ जी मुनीम को बुलाते और जो उधार माँगने वाला व्यक्ति होता उससे पूछते कि "भाई ! तुम उधार कब लौटाओगे ? इस जन्म में या फिर अगले जन्म में ?"  
      जो लोग ईमानदार होते वो कहते - "सेठ जी ! हम तो इसी जन्म में आपका कर्ज़ चुकता कर देंगे।" और कुछ लोग जो ज्यादा चालक व बेईमान होते वे कहते - "सेठ जी ! हम आपका कर्ज़ अगले जन्म में उतारेंगे।" और अपनी चालाकी पर वे मन ही मन खुश होते कि "क्या मूर्ख सेठ है ! अगले जन्म में उधार वापसी की उम्मीद लगाए बैठा है।" ऐसे लोग मुनीम से पहले ही कह देते कि वो अपना कर्ज़ अगले जन्म में लौटाएंगे और मुनीम भी कभी किसी से कुछ पूछता नहीं था। जो जैसा कह देता मुनीम वैसा ही बही में लिख लेता।  
     एक दिन एक चोर भी सेठ जी के पास उधार माँगने पहुँचा। उसे भी मालूम था कि सेठ अगले जन्म तक के लिए रकम उधार दे देता है। हालांकि उसका मकसद उधार लेने से अधिक सेठ की तिजोरी को देखना था। चोर ने सेठ से कुछ रुपये उधार माँगे, सेठ ने मुनीम को बुलाकर उधार देने कोई कहा। मुनीम ने चोर से पूछा- "भाई ! इस जन्म में लौटाओगे या अगले जन्म में ?"  चोर ने कहा - "मुनीम जी ! मैं यह रकम अगले जन्म में लौटाऊँगा।"  मुनीम ने तिजोरी खोलकर पैसे उसे दे दिए। चोर ने भी तिजोरी देख ली और तय कर लिया कि इस मूर्ख सेठ की तिजोरी आज रात में उड़ा दूँगा।  
      रात में ही सेठ के घर पहुँच गया और वहीं भैंसों के तबेले में छिपकर सेठ के सोने का इन्तजार करने लगा। अचानक चोर ने सुना कि भैंसे आपस में बातें कर रही हैं और वह चोर भैंसों की भाषा ठीक से समझ पा रहा है।  
     एक भैंस ने दूसरी से पूछा- "तुम तो आज ही आई हो न, बहन !" उस भैंस ने जवाब दिया- “हाँ, आज ही सेठ के तबेले में आई हूँ, सेठ जी का पिछले जन्म का कर्ज़ उतारना है और तुम कब से यहाँ हो ?” उस भैंस ने पलटकर पूछा तो पहले वाली भैंस ने बताया- "मुझे तो तीन साल हो गए हैं, बहन ! मैंने सेठ जी से कर्ज़ लिया था यह कहकर कि अगले जन्म में लौटाऊँगी। सेठ से उधार लेने के बाद जब मेरी मृत्यु हो गई तो मैं भैंस बन गई और सेठ के तबेले में चली आयी। अब दूध देकर उसका कर्ज़ उतार रही हूँ। जब तक कर्ज़ की रकम पूरी नहीं हो जाती तब तक यहीं रहना होगा।”
       चोर ने जब उन भैंसों की बातें सुनी तो होश उड़ गए और वहाँ बंधी भैंसों की ओर देखने लगा। वो समझ गया कि उधार चुकाना ही पड़ता है, चाहे इस जन्म में या फिर अगले जन्म में उसे चुकाना ही होगा। वह उल्टे पाँव सेठ के घर की ओर भागा और जो कर्ज़ उसने लिया था उसे फटाफट मुनीम को लौटाकर रजिस्टर से अपना नाम कटवा लिया।  
       हम सब इस दुनिया में इसलिए आते हैं, क्योंकि हमें किसी से लेना होता है तो किसी का देना होता है। इस तरह से प्रत्येक को कुछ न कुछ लेने देने के हिसाब चुकाने होते हैं। इस कर्ज़ का हिसाब चुकता करने के लिए इस दुनिया में कोई बेटा बनकर आता है तो कोई बेटी बनकर आती है, कोई पिता बनकर आता है, तो कोई माँ बनकर आती है, कोई पति बनकर आता है, तो कोई पत्नी बनकर आती है, कोई प्रेमी बनकर आता है, तो कोई प्रेमिका बनकर आती है, कोई मित्र बनकर आता है, तो कोई शत्रु बनकर आता है, कोई पङोसी बनकर आता है तो कोई रिश्तेदार बनकर आता है। चाहे दुःख हो या सुख हिसाब तो सबको देना ही पड़ता हैं। यही प्रकृति का नियम है..!!    

कर्म करते जीवन बिता

मनुष्य के शरीर को वेदों में क्षेत्र कहा गया है--'स्वे क्षेत्रे अनमीवा विराज'=अपने शरीर में निरोग रह। शरीर को क्षेत्र कहने का विशेष प्रयोजन है। क्षेत्र में कृषिकर्म होता रहना चाहिए। बोना, काटना बराबर चलते रहना चाहिए। इसी से इसे कोई कोई कुरुक्षेत्र भी कहते हैं। इस दृष्टि से वेद में उपदेश है 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि'--कर्म करते हुए ही। कर्म की तीन गतियां हो सकती हैं।१) कर्म २) विकर्म३) अकर्म।
ना करने को कर्म तथा उल्टे कर्म को विकर्म कहते हैं। शेर शर्मा का अर्थ सूतरां
सत्कर्म हुआ। कर्म-अकर्म की विवेचना बहुत गहन है। गीता में कहा है--किं
कर्म किमकर्मेती कवयोऽप्यत्र मोहिता:'
क्या करना है, और क्या अकर्म है, इस विषय में कवि=क्रांत दर्शी भी विमुग्ध हैं, तथापि स्थूल रूप से कर्म, विकर्म, अकर्म की उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचना सभी को मान्य है। इससे पूर्व यजुर्वेद ४०/१ मे कहा है--'मा गृध: कस्य स्विद्धनम्'=किसी के धन का लालच मत कर। पराए धन का लालच समस्त बुरे कर्मों का उपलक्षण है अर्थात बुरे कर्म मत कर। इससे विक्रम का निषेध हो गया। कर्म और अकर्म के विवाद में से अकरम का निषेध कर दिया गया है। शेष कर्म सुकर्म रह गए। इससे अर्थ हुआ--मनुष्य इस संचार में संपूर्ण आयु सत्कर्म करता हुआ ही जीने की इच्छा करें।
यह संसार कर्मों से बंधा है अर्थात कर्म बंधन के कारण हैं। वेज इसका खंडन करता हुआ कहता है--एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे=ऐसा करने पर कर्म तुझे नहीं बांधेगा; और कोई उपाय नहीं। जब कामना छोड़कर केवल कर्तव्य बुद्धि से भगवान की आज्ञा समझ कर कर्म किए जाते हैं तब वे कर्म-बंधन के कारण नहीं बनते। इच्छा, वासना के कारण किए कर्म बंधन के कारण बनते हैं। क्योंकि यदि इच्छा पूरी हो गई तो हर्ष होता है; यदि इच्छा पूरी ना हुई, उसका विघात हुआ, तो विषाद होता है। प्रसाद और विषाद बंधन के कारण है। जब किसी इच्छा को सामने रखकर कार्य न किया जा रहा हो, तो इष्टसिद्धियां या वासनाविघात का अवसर ना होने से बंधन के हेतु प्रसाद या विवाद उत्पन्न ही नहीं होते।
वैदिक मन्त्र
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समां:।
एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न लिप्यते नरे।।
यजु४०/२
वैदिक भजन ९२८ वां
राग केदार
गाने का समय रात्रि का प्रथम प्रहर
ताल कहरवा ८ मात्रा
ऐ आर्यो ! करो आत्मोन्नति
निज श्रेष्ठ कर्म के द्वारा (२)
आत्मरति सदा पाते रहो
शतवर्ष हो जीवन तुम्हारा (२

रहो दूर विकर्मों से
सुकर्म से जीवन जीओ (२)
विषय- भोग का त्याग करो
पालन ईशाज्ञा करो
मोह त्याग दो विषय का
अपनी ही कर्तव्य बुद्धि के द्वारा
ऐ आर्यो.......
परधन का लोभ ना कर
धन पूजित अर्जित कर (२)
सत्कर्म हो जीवन भर
हो पाप-दुरित ना डर
भगवान की आज्ञा पर
हो निष्काम तेरा जीवन सारा
ऐ आर्यो.......
होगी(ती) जब पूर्ण इच्छा
जागता है मन में हर्ष (२)
यदि पूरी नहीं होगी
दु:ख करता हृदय को स्पर्श
यह प्रसाद-विषाद मिले
तुझको केवल इस बन्धन के द्वारा
ऐ आर्यो......
ना लिप्त हो बन्धन में
आनन्द प्रभु का ले (२)
जो सुक्षेत्र बने मन- देह
सत्कर्म के धारण से
बन्धन से मुक्त जीवन का
सफर कर ले सत्कर्म द्वारा (२)
ऐ आर्यो........ ।

            शब्दार्थ:-  

आत्मरति=आत्मा का प्रेम
विकर्म =उल्टा कर्म
सुकर्म= अच्छे कर्म
अर्जित= कमाना
दुनिया=बुराइयां
हर्ष=खुशी, प्रसन्नता
प्रसाद=अनुग्रह, कृपा
विषाद=दु:ख, कष्ट
लिप्त=लगा हुआ
सुक्षेत्र=बोने काटने लायक क्षेत्र

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कर्म का धर्म से अधिक महत्व है. क्योंकि धर्म करके भगवान से मांगना पड़ता है, पर कर्म करने से भगवान स्वयं फल देते है.

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J Med Ethics Hist Med. 2017; 10: 11.
Published online 2017 Dec 2.
PMCID: PMC5797677
PMID: 29416831
Is past life regression therapy ethical?
Gabriel Andrade
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Abstract
Past life regression therapy is used by some physicians in cases with some mental diseases. Anxiety disorders, mood disorders, and gender dysphoria have all been treated using life regression therapy by some doctors on the assumption that they reflect problems in past lives. Although it is not supported by psychiatric associations, few medical associations have actually condemned it as unethical. In this article, I argue that past life regression therapy is unethical for two basic reasons. First, it is not evidence-based. Past life regression is based on the reincarnation hypothesis, but this hypothesis is not supported by evidence, and in fact, it faces some insurmountable conceptual problems. If patients are not fully informed about these problems, they cannot provide an informed consent, and hence, the principle of autonomy is violated. Second, past life regression therapy has the great risk of implanting false memories in patients, and thus, causing significant harm. This is a violation of the principle of non-malfeasance, which is surely the most important principle in medical ethics.

Key Words: Past life regressions, Psychiatry, Reincarnation, Medical ethics
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Introduction
Past life regression is a technique that attempts to use hypnosis in order to recover memories from previous lives. According to past life regression therapists, many mental health issues that patients experience may have their origins in traumatic experiences of past lives. Thus, through hypnosis, practitioners take the patients back in time (regression) (1). This regression could be to periods of their infancy, but also to periods of their gestational development, or periods before they were born with their current body, but their soul may have been embodied in another body, i.e., past lives.

Past life regression therapy, therefore, assumes the reality of reincarnation. Based on this assumption, practitioners believe that various mental disorders can be treated by addressing the events that an individual went through before he or she was born in this life.

Mainstream psychiatry has traditionally rejected this assumption. However, some high profile practitioners in the field have upheld past life regression therapy, and actually incorporate it in their medical practice as a therapeutic technique. Perhaps the most prominent promoter of this therapeutic approach is psychiatrist Dr. Brian Weiss. In a series of bestselling books, Dr. Weiss has recommended hypnosis for patients, in order to overcome phobias. These phobias, Dr. Weiss believes, go back to experiences from previous lives (2). By going back to those experiences through hypnosis, the patient confronts his/her fears, and ultimately, becomes desensitized to his/her original fears. Dr. Weiss’s therapeutic approach has gained notoriety, because at first, he did not believe in reincarnation. According to his testimonies, as he encountered patients that allegedly gave precise details of their past lives, Dr. Weiss came to change his mind. In the public’s view, Dr. Weiss’s initial skepticism renders him some professional credibility; he came to believe in reincarnation and the efficacy of past life regressions not due to some whacky previous religious beliefs, but rather because evidence from his medical practice led him to it.

Although the medical establishment does not favor these procedures, there is a high demand for them in the general population. According to some estimates, 25% of the American population believe in reincarnation, and that figure is surely higher in countries with religions (Buddhism, Hinduism) that give karma and reincarnation a strong relevance in their belief systems (3).

For the most part, professional psychiatric associations have refused to offer support to these techniques, but they have not gone further in calling into question the ethics of such procedures. In this article, I shall evaluate the ethics of past life regression, by considering three of the most important principles in medical ethics; autonomy, beneficence, and non-malfeasance. I will address three points: 1) is reincarnation even conceptually possible? 2) Does the evidence really support the reincarnation hypothesis?; and 3) Is past life regression therapy harmless?

Is reincarnation even conceptually possible?

Reincarnation beliefs are quite ancient. In Ancient Greece, Pre-Socratic philosophers speculated about the soul travelling from one body upon death to another newly born. These beliefs were not particularly important in Western societies, but in the East, they did become quite prominent, first, during the Vedic Period, and then, with some of the great religious reforms by Buddha and Mahavira.

Yet, even from very early times, some philosophers realized that, regardless of the actual evidence, there are some conceptual objections to reincarnation. First, there is the problem of population growth. The human population has increased continuously throughout history. In 8,000 BCE, the human population was at about five million; today, it is at about six billion. Now, if the doctrine of reincarnation is true, the number of souls is constant. For, when someone dies, her soul does not become extinct, and when someone is born, her soul is not new, as it is travelling from another body. However, if the number of souls is constant, how can we explain the increase in the number of bodies? Presumably, in the year 8,000 BCE, there were five million soles in the world. Today, presumably, there are six billion souls. Where did these additional souls come from?

In truth, this objection is not formidable. According to the reincarnation doctrine, there is no reason to assume that no new souls can be created. Even if the number of souls is constant, some of them could have a disembodied existence while they wait for new bodies to come into existence, as the population increases. Furthermore, if, as Hinduism teaches, reincarnation need not only take place amongst human beings, then, the remaining souls could also be embodied in animals, while they wait for new human bodies to be born.

However, there are some other important conceptual objections. If reincarnation is real, it is nevertheless true that most people do not remember their previous lives. Now, without memories from previous lives, how can we allege that someone is the same person (or, as philosophers would phrase it, numerically identical) as the one who lived in a previous life? For the sake of argument, we may admit that the criterion of personal identity (i.e., how do we make sure that a person at a given time is the same person at another time?) is not the body (although, some philosophers do insist that the only possible criterion is the body, for reasons that I shall not delve into). Under this assumption, one need not have the same bodily continuity in order to be considered the same person, as long as there is at least some psychological continuity. The philosopher John Locke famously argued that if a prince would one day wake up in the body of a cobbler, but would keep his memories as a prince, then, he would still be the prince (4).

Nevertheless, the problem with reincarnation is that there is precisely no psychological continuity, as most people do not remember their previous lives. By the psychological criterion of identity, then, we cannot be someone of whom we have no memories. Defenders of reincarnation claim that we have no memories from our earliest infancy, but that does not mean we are not the same person. Furthermore, patients with memory impairment (such as patients with Alzheimer’s disease) have few, if any, memories of their life, but again, that does not mean they are not the same person.

However, philosophers have usually pointed out an important caveat regarding the psychological identity criterion: if there is a chain of memories from one stage to a later stage, then, identity is preserved. Thus, for example, an elderly general may have memories of his time as a young officer, and this officer had memories of his childhood, then, we can say that the elderly general is the same person as the child. Yet, in the case of reincarnation, there is no such chain.

Apart from these conceptual problems specific to reincarnation, there are also conceptual problems regarding the existence of souls. The doctrine of reincarnation assumes that souls exist, as a person’s soul abandons his/her body upon death, and enters another body at the moment of birth. However, if the soul is a mysterious nonmaterial substance, how does it interact with matter? Back in the 17th Century, philosopher Rene Descartes was aware of this problem, and he argued that soul and body interact in the pineal gland (5). Now we know that this is wrong; the pineal gland has no cognitive function. But even if it did, the problem remains: how does a nonphysical substance make its entry into the physical universe and become a causal agent?

Is there evidence for reincarnation?

As early as the times of Plato, some philosophers have tried to offer evidence that seems to support the reincarnation hypothesis. According to a famous argument laid out in Plato’s Phaedo, we have knowledge that we could not possibly acquire in this lifetime. Plato was intrigued by the abilities of some people to do certain things that they never learned to do. In Plato’s estimation, learning is actually a form of reminiscence: in education, while we are stimulated by our teachers’ questions, we come to remember things from our previous lives (6).

It is no doubt true that we have innate knowledge and innate mental contents. Nevertheless, as opposed to what Plato believed, that does not imply that it comes from previous lives. Actually, our brains may be genetically hardwired for certain mental traits, and some specific innate knowledge. One need not have been bitten by a snake in a previous life in order to innately fear snakes. The fear of snakes was very likely advantageous in the African Savannah, and thus, that fear is probably encoded in our genes.

Defenders of reincarnation also point out déjà vu experiences. They are the strange feeling some people get when they encounter a situation for the first time, but they have the sensation that they have already lived through it. But again, we must not rush and jump to conclusions. It has been proposed that déjà vu experiences are due to a mismatch in the timing of sensorial information processing; it is possible that one of the brain’s hemispheres assimilates information, and a short time later, the other hemisphere assimilates the information. In such a scenario, the person would believe that he/she is reliving incident that, in fact, only occurred a few milliseconds ago.

Déjà vu experiences may also be explained as instances of cryptomnesia, i.e., when a person stores some sensorial datum in their memory, but it soon disappears from conscious memory. These memories may remain hidden in the person’s mind, and they may again be activated in a similar situation, without the person having a clear understanding of those memories.

Probably the strongest body of evidence in favor of reincarnation comes from the collection of cases by a prominent American psychiatrist, Dr. Ian Stevenson (7). Stevenson was skeptical about past life regressions, but he did believe that the etiology of many mental disorders can be traced back to unsolved conflicts in previous lives. In particular, Dr. Stevenson was interested in gender identity disorders (the DSM 5 now calls this disorder “Gender Dysphoria”); in his estimation, many of these cases are due to the fact that, in a previous lifetime, the patient belonged to another gender group.

Stevenson’s main area of research was the phenomenon of children who allege to remember previous lives. He collected a considerable amount of cases in India, Sri Lanka, Turkey, Brazil, Lebanon, and the US. In most of those cases, children would not behave as expected. Many of these children would speak rudely to their parents, for they believed themselves to be their own grandparents.

According to Stevenson’s reports, other children developed attitudes and interests not in accordance with their age; Stevenson interpreted this as coming from a previous life. Some children developed particular phobias, with no particular experience to activate them. Again, he speculated that these phobias came from traumatic events in previous lives (8).

In the majority of cases investigated by Stevenson, children alleged to be the reincarnation of some member of the same family. In other cases, however, children alleged to be the reincarnation of persons with the family of whom the child’s family was not acquainted. Some of these children were capable of giving details regarding their previous lives, without any possibility of the child having known these details through other means. In one case, a boy from a village claimed to be the reincarnation of a man who died some decades ago, and lived in a distant village. The child had never abandoned his own village, and therefore, never had the opportunity to know the details about the man’s life.

Stevenson also paid attention to birthmarks and birth defects in children who remembered past lives (9). In most of these cases, children claimed to be people who died violently, and their birthmarks would correspond to the wounds they had as a result of the injury that caused their death. Stevenson claimed to have found a considerable number of this type of cases.

Stevenson’s studies are quite extensive, and in this brief space, I cannot discuss the details of each case. However, I can point to some methodological flaws that cast a big shadow over his findings.

Even if he claimed not to have definitive data supporting the reincarnation hypothesis, Stevenson seemed to have a preconceived idea, and he just sought the way to confirm it. He may have been guilty of confirmation bias. All Stevenson ever did was to look for cases that seemed to confirm his initial preconceived hypothesis, and ignore the massive amount of cases that do not fit his initial expectation. The number of children who did not remember past lives far exceed the number of children who did, but Stevenson never took this into account. Whenever a case did not fit his preconceived idea, he just moved on to the next one that, apparently, did fit into his mold.

The main problem with Stevenson’s research, then, is that his hypotheses are not falsifiable. According to philosopher Karl Popper, this is the definite criterion separating science from pseudoscience (10). No possible counterexample can ever refute pseudoscience, because pseudoscience always has a way of accommodating via ad hoc hypothesis. This was the case with Stevenson’s research. Every time he was presented with evidence that seemed to refute his hypothesis, he would just move to another case.

Stevenson was apparently apt at verifying his hypothesis (hence his massive data), but not at confronting evidence contrary to his theories. In his research, unlike true scientific research, there was no possible counterexample that he would be willing to take as a refutation of his claims. The question “what evidence would be enough for you to change your views?” was left unanswered by Stevenson.

Another important criterion in the philosophy of science is predictability. As opposed to pseudoscientific theories, scientific theories can make predictions. Science assumes regularity in nature. Thus, if science pretends to know the laws of nature, it should have the capacity to elaborate predictions on the basis of its knowledge of nature.

Stevenson’s theories, however, have no predictive value. For example, if, as Stevenson claims, a violent death will lead to a reincarnation in which the child will have birthmarks, then, we should at least expect some predictions about particular birthmarks in future incarnations. Yet, Stevenson did not provide any clue on future specific birthmarks.

It is true that Stevenson never claimed that his data is definitive, and it is also true that science requires an open mind to consider possible cases. Apart from Stevenson’s studies, little research has been done on the possibility of reincarnation, and the jury may still be out. However, Stevenson’s data is too weak to even suggest reincarnation, and his collection methods are very questionable.

Stevenson did not speak the languages of the societies in which he carried out his studies. He relied on local interpreters, and this allowed for various cases of corruption. In many of the countries where Stevenson did his research, there is considerable cultural expectation when it comes to cases of reincarnation. The interpreters, consciously or not, could have offered data confirming reincarnation, even though it may not have been the subjects’ original testimonies. Stevenson should have been careful to independently validate his interpreters’ translations, but he never did that. His research does not present audio recordings or even transcriptions of interviews in the informants’ original languages. In fact, Stevenson had some interpreters who were later found to be fraudulent (11); Stevenson himself admitted his interpreter’s dishonesty in some aspects, but he still trusted his translations. That is extremely naïve and scientifically unacceptable.

There are other graver problems. In the vast majority of Stevenson’s cases, children claimed to remember the lives of people who were either a part of the child’s family or close to them. In addition, Stevenson’s questions induced the informants to give the information that he wanted in the first place (12). Furthermore, the interviewing time was extremely short, which again, seems to suggest that Stevenson was more interested in getting the information that fit his preconceived ideas, and after he got that, he would not investigate further.

Stevenson also had the habit of not only incorporating the children’s testimonies, but also the adults’ interpretations into his reports. In most cases, adults would favor the reincarnation hypothesis, so their biases were incorporated into the data. In fact, Stevenson rarely spoke to the children, in part because the children were too shy to talk to a Western researcher. Adults spoke for the children, and again, this allowed for the adults’ biases to come through. Some parents even knew the relatives of the person whose life the child allegedly remembered; hence, the probability of the child getting information from them was increased. As a matter of fact, only in a small proportion of cases, the child’s family did not know the deceased person’s family.

Generally, Stevenson received the news that in some village, a child claimed to remember past lives, and then, he went to investigate the case. Between the time that he received the news and he finally reached the village, a lengthy time (three weeks to two years) passed. During that time, the child’s family could have met the deceased person’s family, and they could have gathered information that ultimately reached the child. By the time Stevenson arrived, the child would be able to give some specific details, and of course, they would not come from the child’s alleged memories, but rather, from the information that came as a result of the families’ encounters.

Furthermore, the fact that the majority of cases investigated by Stevenson were violent deaths also raises some suspicions. Violent deaths are much more publicized than nonviolent ones. That increases the availability of information, and hence, the probability of the child gaining details on the deceased person’s life.

The fact that most of these cases take place in countries where reincarnation is a mainstream religious belief also raises suspicions. The child’s family may already be conditioned to believe that the child does remember a previous life, and they may actually encourage such beliefs in the child. Any small gesture coming from a child may be interpreted as a sign of remembering past lives, and this further serves as feedback for the child to elaborate on his claims in fulfilment of the parents’ expectations.

In the cases collected by Stevenson, there also seemed to be a correlation between the culture’s beliefs and the way the cases develop. For example, in cultures where it is not accepted that someone may reincarnate in the opposite sex, no child would remember a previous life in the opposite sex. In matrilineal cultures, children mostly remembered the lives of matrilineal relatives, whereas in patrilineal cultures, children remembered the lives of patrilineal relatives (13). There is also the issue that many of Stevenson’s cases were from India. This raises the suspicion that some children may claim to remember the lives of people from upper castes as a way to scale upwards in the caste system.

All these methodological problems come up as a result of a central flaw in Stevenson’s research: all he really did was to collect anecdotes. Anecdotal evidence may be useful at first, but it is not enough to build a strong case for a hypothesis. Furthermore, as Carl Sagan famously claimed, extraordinary claims require extraordinary evidence. Reincarnation is an extraordinary claim, but Stevenson’s investigations are not extraordinary evidence. In Stevenson’s research, there are no controlled experiments.

As for the extraordinary talents developed by children, reincarnation is not the only possible explanation. Talents (artistic, academic, and etc.) have various heritability rates, but basically most of them do have a genetic basis. Some defenders of reincarnation claim that some children with extraordinary talents come from families without those talents. However, that is not a good enough argument, for it ignores a basic law in Mendelian genetics: a given trait may disappear in one generation and reappear in another. The parents may carry the dominant unexpressed variety of a gene for a specific talent.

It has been frequently claimed that Mozart must have been the reincarnation of a great musician, for, how can someone at such a young age develop those musical skills? Again, there is no need to appeal to reincarnation: it is quite possible that Mozart may have had an acute auditory cortex, which allowed him to develop his impressive musical talents at an early age (14).

Stevenson always claimed that the most important cases were the ones in which children had birthmarks supposedly coinciding with the wounds that came as a result of the deceased person’s violent death. But again, all this evidence is just anecdotal. The deceased person’s body had already decomposed, so there did not seem to be a good opportunity to analyze the details of the wounds and compare them to the birthmark. Stevenson only relied on testimonies and photographs; both types of evidence are highly susceptible to fraud.

Moreover, once again, in these cases, Stevenson arrived too late. This delay allowed for the possibility of the child’s family, by contemplating the child’s birthmark, investigating who in the village may have died with similar wounds. The families may have established contact, and the child may have been provided with information about the deceased person. By the time Stevenson arrived, the child may have elaborated his/her alleged memories feeding on that information.

Furthermore, if reincarnation is just about the transmigration of souls, how exactly do marks appear on the body? Neither Stevenson nor any other defender of the reincarnation hypothesis has ever given a satisfactory response to this important question. Once again, we face the problem of interaction between material and nonmaterial substances.

Is past life regression therapy harmless?

Despite the fact that, as I have argued, the reincarnation hypothesis faces some tough conceptual problems and the empirical evidence in its favor is very weak, some psychiatrists do insist on using past life regression therapy to treat some mental disorders, specially specific phobias (15).

The movement to use past life regression as therapy in psychiatry began with a famous case, that of Bridey Murphy, in the 1950s (16). In 1952, an amateur hypnotist, Morey Bernstein, hypnotized Virginia Tighe, a woman from the State of Colorado in the US. Under hypnosis, Tighe assumed the personality of one Bridey Murphy, allegedly an Irish woman from the 19th Century. Tighe had never travelled to Ireland, but in the hypnosis sessions, she spoke with a British accent, and surprisingly, she gave precise details about Irish life in the 19th Century.

Bernstein wrote a book about this case (17), and the details provided in the book made some scientists think that, indeed, Tighe was the reincarnation of Murphy. However, as the case drew the attention of the media, some reporters went to Ireland to investigate, and found out that Tighe´s details had some flaws. The registry details of the town where Murphy had allegedly been born did not match the local records. Tighe claimed that in her previous life she lived in a wooden house, but in fact, in her alleged hometown there were no wooden houses.

It turned out that one Bridie Murphy Corwell had been a neighbor to Tighe during her childhood. It was highly probable that she heard stories about Ireland from this neighbor, and this information came out during her hypnosis sessions, although she believed them to be part of a past life.

The case of Bridey Murphy is very illustrative of what really goes on during past life regressions. During these procedures, cryptomnesia is very significant. Cryptomnesia, let us recall, is a process during which a subject records some information in his/her mind, but this information remains “hidden” in the unconscious. Under special circumstances (such as hypnosis), the subject may think that he/she is once again living a particular experience, when in fact, it is just a hidden memory. For the most part, memory is a selective process; we daily apprehend an enormous amount of sensory data, and we must discriminate on the basis of relevance. We normally choose what we desire to remember. Some data is then deleted, but some unwanted data nevertheless is retained. When this information reappears, we believe it to be a new experience, or in cases such as Bridey Murphy´s, we believe it to be reminiscence of past lives.

In the case of hypnosis and past life regression, the fact that the hypnotized subject is in a state of suggestibility increases the probability of the occurrence of cryptomnesia. In hypnosis, the hypnotist easily manipulates the subject´s mental state. Thus, in hypnosis, the hypnotist may easily induce the subject to assume the role of some character in a previous life. The hypnotist may even do this unconsciously, by asking leading questions that, under a state of suggestibility, the hypnotized subject follows and complies with the initial request. For example, the hypnotist may state: “Go back to your life as a soldier in the American Revolution”, and taking cue from the hypnotist, the subject may begin to behave in a manner that she believes appropriate for soldiers during the American Revolution on the basis of some memories stored in history class during her schooldays. The hypnotist may be excited by this response, he may ask even more leading questions, and ultimately, the hypnotized subject may provide some apparently vivid details of some battle, again on the basis of some previous educational experience (reading a book, watching a movie, and etc.).

Past life regression, as with most psychotherapies, can provide some good results. Talking about one´s problems will offer some form of relief. Thus, even if reincarnation is not real and past life regression is just a role-playing game in which the patient follows the suggestions of the hypnotist, is it not ethically acceptable? If the bottom line is helping patients, why should there be any moral objections to this procedure?

Let us consider the three important principles of medical ethics (beneficence, autonomy, and non-malfeasance) in order to answer this question. It is undoubtedly true that past life regressions are performed with the intention of helping patients, and indeed, many patients do find some relief undergoing these therapies. In such a manner, the principle of beneficence (the promotion of the wellbeing of others) is honored.

Past life regressions are not forced on patients. They are always done with the consent of the patients. Therefore, apparently, the principle of autonomy is also honored. Yet, there is concern as to how informed patients are when it comes to these procedures. In order for the principle of autonomy to be truly honored, there must be informed consent. When doctors do not explain to patients that there is no scientific evidence for reincarnation (and that reincarnation even faces some difficult conceptual problems), patients are not fully informed. With such a lack of information, there can be no true consent, and hence, the principle of autonomy is compromised.

Most ethicists agree that the most important principle of medical ethics is actually non-malfeasance (First, do no harm) (18). Even if a patient asks for a procedure, if that procedure is likely to cause harm, the physician should abstain from performing it. Past life regressions can have good outcomes, but they also carry some significant risks. Those risks far outweigh the possible beneficial consequences of this type of therapy.

The greatest risk in past life regressions is that the hypnotist may implant false memories in the subject, and due to suggestibility, the subject may come to feel them as quite real. This implantation of false memories need not even be intentional. The therapist may ask a question, such as “Were you ever a soldier in the American Revolution?”, and the subject, inasmuch as she desires to fulfill the role that the therapist apparently expects of her, elaborates on the details. If the hypnotist asks a leading question that may suggest a traumatic experience to the subject, even if that traumatic experience never actually happened, it may actually become quite real for the hypnotized person.

In fact, this danger became especially acute during the Satanic Ritual Abuse moral panic of the 1980s in the US. Hundreds of patients underwent hypnosis in order to recover memories of alleged sexual and ritual abuses during their infancies. A thorough FBI investigation was carried out, and no evidence whatsoever was found to support the allegations of sexual and ritual abuse (19). Nonetheless, the hypnotists had asked leading questions, and these false memories had come to be perceived as quite real by the subjects. As a result of hypnotic sessions, these subjects had to face the troubling consequences of having false memories of traumatic events that, in fact, had never happened to them.

The same risk is present in past life regressions. In these therapies, a traumatic false memory from a previous life may be implanted in the subject, causing significant harm. Hence, by the principle of non-malfeasance, past life regressions are not ethical. Furthermore, the time and resources wasted on past life regressions could be better allocated to therapies that are far more efficient, especially in the treatment of phobias. Cognitive behavioral therapy (CBT) is an evidence-based approach that is quite efficient in treating mood and anxiety disorders (including specific phobias). It is unethical to propose to a patient to go back to a previous life to come to terms with a traumatic event in order to treat a phobia, when in fact, it is much more efficient to do so through some of the techniques in behavioral therapy (such as flooding or systematic desensitization).

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Conflict of interest
The author declares that there is no conflict of interest.

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References

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चौरासी लाख योनियों का रहस्य.
हिन्दू धर्म में पुराणों में वर्णित ८४००००० योनियों के बारे में आपने कभी ना कभी अवश्य सुना होगा। हम जिस मनुष्य योनि में जी रहे हैं वो भी उन चौरासी लाख योनियों में से एक है। अब समस्या ये है कि कई लोग ये नहीं समझ पाते कि वास्तव में इन योनियों का अर्थ क्या है? ये देख कर और भी दुःख होता है कि आज की पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी इस बात पर व्यंग करती और हँसती है कि इतनी सारी योनियाँ कैसे हो सकती है। कदाचित अपने सीमित ज्ञान के कारण वे इसे ठीक से समझ नहीं पाते। गरुड़ पुराण में योनियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है। तो आइये आज इसे समझने का प्रयत्न करते हैं।
सबसे पहले ये प्रश्न आता है कि क्या एक जीव के लिए ये संभव है कि वो इतने सारे योनियों में जन्म ले सके? तो उत्तर है, हाँ। एक जीव, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं, इन ८४००००० योनियों में भटकती रहती है। अर्थात मृत्यु के पश्चात वो इन्ही ८४००००० योनियों में से किसी एक में जन्म लेती है। ये तो हम सब जानते हैं कि आत्मा अजर एवं अमर होती है इसी कारण मृत्यु के पश्चात वो एक दूसरे योनि में दूसरा शरीर धारण करती है। अब प्रश्न ये है कि यहाँ "योनि" का अर्थ क्या है? अगर आसान भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है जाति (नस्ल), जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं। अर्थात इस विश्व में जितने भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है। इन जातियों में ना केवल मनुष्य और पशु आते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु इत्यादि की गणना भी उन्ही ८४००००० योनियों में की जाती है। आज का विज्ञान बहुत विकसित हो गया है और दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक वर्षों की शोधों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस पृथ्वी पर आज लगभग ८७००००० (सतासी लाख) प्रकार के जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती है। इन ८७ लाख जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों की उपजातियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। अर्थात अगर केवल मुख्य जातियों की बात की जाये तो वो लगभग ८४ लाख है। अब आप सिर्फ ये अंदाजा लगाइये कि हमारे हिन्दू धर्म में ज्ञान-विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों वर्षों पहले केवल अपने ज्ञान के बल पर ये बता दिया था कि ८४००००० योनियाँ है जो कि आज की उन्नत तकनीक द्वारा की गयी गणना के बहुत निकट है।
हिन्दू धर्म के अनुसार इन ८४ लाख योनियों में जन्म लेते रहने को ही जन्म-मरण का चक्र कहा गया है। जो भी जीव इस जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है, अर्थात जो अपनी ८४ लाख योनियों की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है और उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे ही हम "मोक्ष" की प्राप्ति करना कहते है। मोक्ष का वास्तविक अर्थ जन्म-मरण के चक्र से निकल कर प्रभु में लीन हो जाना है। ये भी कहा गया है कि सभी अन्य योनियों में जन्म लेने के पश्चात ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है। मनुष्य योनि से पहले आने वाले योनियों की संख्या ८०००००० (अस्सी लाख) बताई गयी है। अर्थात हम जिस मनुष्य योनि में जन्मे हैं वो इतनी विरली होती है कि सभी योनियों के कष्टों को भोगने के पश्चात ही ये हमें प्राप्त होती है। और चूँकि मनुष्य योनि वो अंतिम पड़ाव है जहाँ जीव अपने कई जन्मों के पुण्यों के कारण पहुँचता हैं, मनुष्य योनि ही मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है। विशेषकर कलियुग में जो भी मनुष्य पापकर्म से दूर रहकर पुण्य करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति की उतनी ही अधिक सम्भावना होती है। किसी भी अन्य योनि में मोक्ष की प्राप्ति उतनी सरल नहीं है जितनी कि मनुष्य योनि में है। किन्तु दुर्भाग्य ये है कि लोग इस बात का महत्त्व समझते नहीं हैं कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है।
एक प्रश्न और भी पूछा जाता है कि क्या मोक्ष पाने के लिए मनुष्य योनि तक पहुँचना या उसमे जन्म लेना अनिवार्य है? इसका उत्तर है, नहीं। हालाँकि मनुष्य योनि को मोक्ष की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक आदर्श योनि माना गया है क्यूंकि मोक्ष के लिए जीव में जिस चेतना की आवश्यकता होती है वो हम मनुष्यों में सबसे अधिक पायी जाती है। इसके अतिरिक्त कई गुरुजनों ने ये भी कहा है कि मनुष्य योनि मोक्ष का सोपान है और मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही पाया जा सकता है। हालाँकि ये अनिवार्य नहीं है कि केवल मनुष्यों को ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य जंतुओं अथवा वनस्पतियों को नहीं। इस बात के कई उदाहरण हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलते हैं कि जंतुओं ने भी सीधे अपनी योनि से मोक्ष की प्राप्ति की। महाभारत में पांडवों के महाप्रयाण के समय एक कुत्ते का जिक्र आया है जिसे उनके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, जो वास्तव में धर्मराज थे। महाभारत में ही अश्वमेघ यज्ञ के समय एक नेवले का वर्णन है जिस युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ से उतना
पुण्य नहीं प्राप्त हुआ जितना एक गरीब के आंटे से और बाद में वो भी मोक्ष को प्राप्त हुआ। विष्णु एवं गरुड़ पुराण में एक गज और ग्राह का वर्णन आया है जिन्हे भगवान विष्णु के कारण मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। वो ग्राह पूर्व जन्म में गन्धर्व और गज भक्त राजा थे किन्तु कर्मफल के कारण अगले जन्म में पशु योनि में जन्मे। ऐसे ही एक गज का वर्णन गजानन की कथा में है जिसके सर को श्रीगणेश के सर के स्थान पर लगाया गया था और भगवान शिव की कृपा से उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। महाभारत की कृष्ण लीला में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो वृक्षों को उखाड़ दिया था। वो यमलार्जुन वास्तव में पिछले जन्म में यक्ष थे जिन्हे वृक्ष योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था। अर्थात, जीव चाहे किसी भी योनि में हो, अपने पुण्य कर्मों और सच्ची भक्ति से वो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
एक और प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मनुष्य योनि सबसे अंत में ही मिलती है। तो इसका उत्तर है, नहीं। हो सकता है कि आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों के कारण आपको मनुष्य योनि प्राप्त हुई हो लेकिन ये भी हो सकता है कि मनुष्य योनि की प्राप्ति के बाद किये गए आपके पाप कर्म के कारण अगले जन्म में आपको अधम योनि प्राप्त हो। इसका उदाहरण आपको ऊपर की कथाओं में मिल गया होगा। कई लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दू धर्मग्रंथों, विशेषकर गरुड़ पुराण में अगले जन्म का भय दिखा कर लोगों को डराया जाता है। जबकि वास्तविकता ये है कि कर्मों के अनुसार अगली योनि का वर्णन इस कारण है ताकि मनुष्य यथासंभव पापकर्म करने से बच सके।
हालाँकि एक बात और जानने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत ही कठिन है। यहाँ तक कि सतयुग में, जहाँ पाप शून्य भाग था, मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत कठिन थी। कलियुग में जहाँ पाप का भाग १५ है, इसमें मोक्ष की प्राप्ति तो अत्यंत ही कठिन है। हालाँकि कहा जाता है कि सतयुग से उलट कलियुग में केवल पाप कर्म को सोचने पर उसका उतना फल नहीं मिलता जितना करने पर मिलता है। और कलियुग में किये गए थोड़े से भी पुण्य का फल बहुत अधिक मिलता है। कई लोग ये समझते हैं कि अगर किसी मनुष्य को बहुत पुण्य करने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती हैतो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति केवल आपके द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम स्वरुप है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद आपको पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात आप जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन "राम-नाम" है।
पुराणों में ८४००००० योनियों का गणनाक्रम दिया गया है कि किस प्रकार के जीवों में कितनी योनियाँ होती है। पद्मपुराण के ७८/५ वें सर्ग में कहा गया है: जलज नवलक्षाणी,
स्थावर लक्षविंशति
कृमयो: रुद्रसंख्यकः
पक्षिणाम् दशलक्षणं
त्रिंशलक्षाणी पशवः
चतुरलक्षाणी मानव
अर्थात,
जलचर जीव: ९००००० (नौ लाख)
वृक्ष: २०००००० (बीस लाख)
कीट (क्षुद्रजीव): ११००००० (ग्यारह लाख)
पक्षी: १०००००० (दस लाख)जंगली पशु: ३०००००० (तीस लाख)
मनुष्य: ४००००० (चार लाख)
इस प्रकार ९००००० + २०००००० + ११००००० + १०००००० + ३०००००० + ४००००० = कुल ८४००००० योनियाँ होती है।
जैन धर्म में भी जीवों की ८४००००० योनियाँ ही बताई गयी है। सिर्फ उनमे जीवों के प्रकारों में थोड़ा भेद है।
जैन धर्म के अनुसार:पृथ्वीकाय: ७००००० (सात लाख)
जलकाय: ७००००० (सात लाख)
अग्निकाय: ७००००० (सात लाख)
वायुकाय: ७००००० (सात लाख)
वनस्पतिकाय: १०००००० (दस लाख)
साधारण देहधारी जीव (मनुष्यों को छोड़कर): १४००००० (चौदह लाख)
द्वि इन्द्रियाँ: २००००० (दो लाख)
त्रि इन्द्रियाँ: २००००० (दो लाख)चतुरिन्द्रियाँ: २००००० (दो लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (त्रियांच): ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (देव): ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (नारकीय जीव): ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (मनुष्य): १४००००० (चौदह लाख)
इस प्रकार ७००००० + ७००००० + ७००००० + ७००००० + १०००००० + १४००००० +२००००० + २००००० + २००००० + ४००००० + ४००००० + ४००००० + १४००००० = कुल ८४०००००

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विधि का विधान
श्री राम का विवाह और राज्याभिषेक दोनों शुभ मुहूर्त देख कर किया गया । फिर भी न वैवाहिक जीवन सफल हुआ न राज्याभिषेक ।
और जब मुनि वशिष्ठ से इसका जवाब मांगा गया तो उन्होंने साफ कह दिया ।
"सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहूं मुनिनाथ ।
लाभ हानि, जीवन मरण, , यश अपयश विधि हाँथ ।।"
अर्थात, जो विधि ने निर्धारित किया है वही होकर रहेगा ।
न राम के जीवन को बदला जा सका, न कृष्ण के ।
न ही शिव सती की मृत्यु को टाल सके,जबकि महामृत्युंजय मंत्र उन्ही का आवाहन करता है ।
न गुरु अर्जुन देव जी और न ही गुरु तेग बहादुर जी और दश्मेश पिता अपने साथ होने वाले विधि के विधान को टाल सके जबकि आप सरब समर्थ थे ।
रामकृष्ण परमहंस भी अपने कैंसर को न टाल सके ।
न रावण अपने जीवन को बदल पाया न कंस । जबकि दोनों के पास समस्त शक्तियाँ थी ।
मानव अपने जन्म के साथ ही जीवन मरण, यश अपयश, लाभ हानि, स्वास्थ्य, बीमारी, देह रंग, परिवार समाज, देश स्थान सब पहले से ही निर्धारित कर के आता है ।
साथ ही साथ अपने विशेष गुण धर्म, स्वभाव, और संस्कार सब पूर्व से लेकर आता है ।।
इस लिए यदि अपने जीवन मे परिवतर्न चाहते हैं, तो अपने कर्म बदलें । आप की मदद के लिए स्वयं परमात्मा खड़े है ।
उन्हे पुकारे
पुकारने का तरीका एक ही है भजन सुमिरन

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