मूढामूढभेद
इन दो मन्त्रों में ज्ञानी अज्ञानी की निशानी बताई गई है। वेद के सीधे-साधे हृदय तक पहुंचने वाले शब्द कितनी गंभीर बात का ऐसा सरल विवेचन करते हैं।
ज्ञानी की पहली निशानी यह है कि वह ऋत का, सत्य का, सृष्टि नियम का, अनुगामी होता है। सृष्टि नियम के अनुगमन का फल उसे उत्तम अवस्था मिलती है। मूढ़(मूर्ख) लोग सृष्टि नियम को जानते ही नहीं, ना उसे जाने का यत्न करते हैं ,जतलाने पर उसे ग्रहण करने की चेष्टा भी नहीं करते ,अतः वह इनका संग छोड़ देता है।
बुद्धिमान की दूसरी पहचान यह है कि वह भगवान की स्तुति करता है। ज्ञानी जन सदा यज्ञ करते हैं। लोगों को ज्ञान, दान अनादि से तृप्त करते हैं,श्रेष्ठ पुरुषों की संगति करते हैं प्रभु- पूजा करते हैं। ज्ञान का फल भी यही है कि वह भले बुरे की पहचान करके भले का ग्रहण और बुरे का त्याग करें ।जैसा कि वेद में कहा है (चित्तिमचितिं चिनवद् वि विद्वान) ऋग्वेद ४.२.११
विद्वान ज्ञान और अज्ञान की विशेष पहचान करें ,अर्थात् पंडित का कर्तव्य है कि उचित-अनुचित का यथा योग्य विवेचन करें।जिसके द्वारा वह अपना तथा दूसरों का कल्याण कर सकेगा। मूर्खों में यह गुण नहीं होता अतः वे 'मज्जन्त्यविचेतस:' मूढ़ अचेत डूब मरते हैं।
ज्ञानी ही भवसागर से तरते हैं क्योंकि उन्होंने तारने वालों से सख्य किया है। तरने के साधनों को संभाल रखा है।
मूर्ख जहाज की पेंदी में छेद कर रहा है, डूबेगा नहीं तो क्या होगा?
मन्त्र
आ यद्योनिं हिरण्ययमाशुर्ऋतस्य सीदति।
जहात्यप्रचेतस:।। ऋ• ९.६४.२०
अभि वेना अनूषतेयक्षन्ति प्रचेतस:।
मज्जन्त्यविचेतस:।।ऋ• ९.६४.२१
भजन
राग मालगुंजी
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर
ताल विलम्बित कहरवा 8 मात्रा
मूर्खता में रहने वाले जन
दुराग्रह में चलते रहते हैं
ऋत- सत्य की भी परवाह कहां
व्यवहार बदलते रहते हैं ।।
मूर्खता........
ज्ञानी की पहली निशानी है
ऋत-सत्य नियम पर चलते हैं
उत्तम फल पाते इस कारण
समृद्धि -सुखों में पलते हैं
लेकिन जो मूढ हैं ऋत से परे
वो दुख-कष्टों में डालते हैं।।
ऋत -सत्य........
पहचान यही बुद्धिमानों की
भगवान की स्तुति में रहते हैं
देव -पूजा दान संगति करण
से अन्न- ज्ञान-दान करते हैं
वो ग्रहण भलाई को करते
और दुर्गुण सर्वदा तजते हैं।।
ऋत-सत्य.........
विद्वान उचित-अनुचित जाने
और सत्य विवेचन करते हैं
गुण कर्म स्वभावों में कल्याण
करके भी दम नहीं भरते हैं
सुधी नाव को पार लगाते हैं
करें मूढ छेद, डूब मरते हैं।।
श्रत-सत्य..........
२९.९.२०२१
६.४५सायं
दुराग्रह हठ, बात में अड़ना
विवेचन=सच और झूठ का निर्णय करना
सुधी=बुद्धिमान
मूढ़=मूर्ख
अमूढ=चतुर, सयाना
दम भरना= विश्वासपात्र होना
संगतिकरण=अत्यंत प्रीति एवं भक्ति के साथ मिलकर सत्पुरुषों की सत्संगति, आराधना करना संगति करण कहलाता है
ज्ञानी और अज्ञानी के भेद
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥
(गीता ४/२०)
अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर वह सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कर्म नहीं करता |
कार्य हमेशा तीन प्रकार से मन, वाणी और शरीर के द्वारा ही किये जाते है, किसी भी कार्य को करते समय “कब हम अज्ञानी होते हैं और कब ज्ञानी होते हैं।”
१. जब हम स्वयं के सुख की कामना करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम दूसरों के सुख की कामना करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
२. जब हम दूसरों को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
३. जब हम स्वयं को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम भगवान को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
४. जब हम दूसरो को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
५. जब हम दूसरों के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
६. जब हम दूसरों को समझाने के भाव से कुछ भी कहते या लिखते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के समझने के भाव से कहते या लिखते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
७. जब हम संसार की सभी वस्तुओं को अपनी समझकर स्वयं के लिये उपभोग करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम संसार की सभी वस्तुओं को भगवान की समझकर भगवान के लिये उपयोग करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
ज्ञानी अवस्था में किये गये सभी कार्य भगवान की भक्ति कार्य ही होते हैं।
Gyan is of four types:
- Mithya
- Sanshya- doubtful
- Shabdik- person has knowledge but he does not implement it in his life
- Tatva- real follower of knowledge