Mandir Uses/Purpose/Concepts:
- Demonstration of prosperity at that time.
- Display of history
- Display of current conditions, culture, issues
- Display of available technology
- Education centers
- Energy centers
- Astrology centers
- Places to keep wealth
- Keeping people together, unifying place
- Common ground to connect
- Celebration of festivals
- Performing rituals
- Performing auspicious events
- Place to do sewa
- Place to get shelter
- Place to meditate
Types of Mandir:
Mandir with Pran pratishtha
Mandir with no pran prathishtha.
Mandir with only one deity
Mandir with many deities.
Mandir with one main deity and many others.
Mandir for Kuldevi or Kuldevta
Mandir for gurus or a person
Ancient mandir
New mandir
Simple mandir
Complex mandir
Mandir with a pujari
Mandir with no pujari
Mandir for women only
Mandir for man only
Mandir for all
Privately owned mandir
Goverment owned mandir
Community owned mandir
Foundation or a governing body owned mandir
Intact mandir
Destroyed mandir (Jeern Mandir)
Rebuilded/reconstructed mandir
Desserted mandir
Well visited mandir
Underground mandir
Mandir surrounded by water
Madir on side of water body
Mandir on land
Mandir in cave
Mandir on mountains
Mandirs in forest
Submerged mandirs
Mandir which are always open
Mandir which opens its door for darshan at a specified time
Mandir with a specific story associated with it
Mandir with no specific story
Mandir with unrestricted access
Mandir with restricted access
Swayambhoo Mandir
Mandirs built by gyanis or a knowlegeable person
Mandirs built by people who have no knowledge of scriptures
Q. Why go to Mandir when Brahm is everywhere?
A. Yes, it is true that Brahm is everywhere. However, not everyone has the power to experience and feel this. Many of us need to see the manifested form of Parmatma. Mandirs are places with lots of positive energy and vibrations. It is a place for social gatherings and celebration of festivals. Mandirs were places for education or Jnan yog, selfless service or Karm yog, surrender and devotion or Bhakti Yog, and to practice Raj yog.
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भारत में ऐसे शिव मंदिर है जो केदारनाथ से लेकर रामेश्वरम तक एक सीधी रेखा में बनाये गये है। आश्चर्य है कि हमारे पूर्वजों के पास ऐसा कैसा विज्ञान और तकनीक था जिसे हम आज तक समझ ही नहीं पाये? उत्तराखंड का केदारनाथ, तेलंगाना का कालेश्वरम, आंध्रप्रदेश का कालहस्ती, तमिलनाडू का एकंबरेश्वर, चिदंबरम और अंततः रामेश्वरम मंदिरों को 79° E 41’54” Longitude के भौगोलिक सीधी रेखा में बनाया गया है।
यह सारे मंदिर प्रकृति के 5 तत्वों में लिंग की अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसे हम आम भाषा में पंच भूत कहते है। पंच भूत यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष। इन्ही पांच तत्वों के आधार पर इन पांच शिव लिंगों को प्रतिष्टापित किया है। जल का प्रतिनिधित्व तिरुवनैकवल मंदिर में है, आग का प्रतिनिधित्व तिरुवन्नमलई में है, हवा का प्रतिनिधित्व कालाहस्ती में है, पृथ्वी का प्रतिनिधित्व कांचीपुरम में है और अतं में अंतरिक्ष या आकाश का प्रतिनिधित्व चिदंबरम मंदिर में है! वास्तु-विज्ञान-वेद का अद्भुत समागम को दर्शाते हैं ये पांच मंदिर।
भौगॊलिक रूप से भी इन मंदिरों में विशेषता पायी जाती है। इन पांच मंदिरों को योग विज्ञान के अनुसार बनाया गया था, और एक दूसरे के साथ एक निश्चित भौगोलिक संरेखण में रखा गया है। इस के पीछे निश्चित ही कॊई विज्ञान होगा जो मनुष्य के शरीर पर प्रभाव करता होगा।
इन मंदिरों का करीब चार हज़ार वर्ष पूर्व निर्माण किया गया था जब उन स्थानों के अक्षांश और देशांतर को मापने के लिए कोई उपग्रह तकनीक उपलब्ध ही नहीं था। तो फिर कैसे इतने सटीक रूप से पांच मंदिरों को प्रतिष्टापित किया गया था? उत्तर भगवान ही जाने।
केदारनाथ और रामेश्वरम के बीच 2383 किमी की दूरी है। लेकिन ये सारे मंदिर लगभग एक ही समानांतर रेखा में पड़ते है। आखिर हज़ारों वर्ष पूर्व किस तकनीक का उपयॊग कर इन मंदिरों को समानांतर रेखा में बनाया गया है यह आज तक रहस्य ही है। श्रीकालहस्ती मंदिर में टिमटिमाते दीपक से पता चलता है कि वह वायु लिंग है। तिरूवनिक्का मंदिर के अंदरूनी पठार में जल वसंत से पता चलता है कि यह जल लिंग है। अन्नामलाई पहाड़ी पर विशाल दीपक से पता चलता है कि वह अग्नि लिंग है। कंचिपुरम के रेत के स्वयंभू लिंग से पता चलता है कि वह पृथ्वी लिंग है और चिदंबरम की निराकार अवस्था से भगवान के निराकारता यानी आकाश तत्व का पता लगता है।
अब यह आश्चर्य की बात नहीं तो और क्या है कि ब्रह्मांड के पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करनेवाले पांच लिंगो को एक समान रेखा में सदियों पूर्व ही प्रतिष्टापित किया गया है। हमें हमारे पूर्वजों के ज्ञान और बुद्दिमत्ता पर गर्व होना चाहिए कि उनके पास ऐसा विज्ञान और तकनीक था जिसे आधुनिक विज्ञान भी नहीं भेद पाया है। माना जाता है कि केवल यह पांच मंदिर ही नहीं अपितु इसी रेखा में अनेक मंदिर होगें जो केदारनाथ से रामेश्वरम तक सीधी रेखा में पड़ते है। इस रेखा को “शिव शक्ति अक्श रेखा” भी कहा जाता है। संभवता यह सारे मंदिर कैलाश को द्यान में रखते हुए बनाया गया हो जो 81.3119° E में पड़ता है!? उत्तर शिवजी ही जाने। ...
कमाल की बात है "महाकाल" से शिव ज्योतिर्लिंगों के बीच कैसा सम्बन्ध है......?? उज्जैन से शेष ज्योतिर्लिंगों की दूरी भी है रोचक- उज्जैन से सोमनाथ- 777 किमी उज्जैन से ओंकारेश्वर- 111 किमी उज्जैन से भीमाशंकर- 666 किमी उज्जैन से काशी विश्वनाथ- 999 किमी उज्जैन से,मल्लिकार्जुन- 999 किमी उज्जैन से केदारनाथ- 888 किमी उज्जैन से त्रयंबकेश्वर- 555 किमी उज्जैन से बैजनाथ- 999 किमी उज्जैन से रामेश्वरम- 1999 किमी उज्जैन से घृष्णेश्वर - 555 किमी
हिन्दु धर्म में कुछ भी बिना कारण के नही होता था । उज्जैन पृथ्वी का केंद्र माना जाता है । जो सनातन धर्म में हजारों सालों से केंद्र मानते आ रहे है इसलिए उज्जैन में सूर्य की गणना और ज्योतिष गण ना के लिए मानव निर्मित यंत्र भी बनाये गये है करीब 2050 वर्ष पहले ।
और जब करीब 100 साल पहले पृथ्वी पर काल्पनिक रेखा (कर्क)अंग्रेज वैज्ञानिक द्वारा बनायीं गयी तो उनका मध्य भाग उज्जैन ही निकला । आज भी वैज्ञानिक उज्जैन ही आते है सूर्य और अन्तरिक्ष की जानकारी के लिये।जय श्री महाँकाल राजा की।
"ॐ जय शिव ओंकारा"
यह वह प्रसिद्ध आरती है जो देश भर में शिव-भक्त नियमित गाते हैं..
लेकिन, बहुत कम लोग का ही ध्यान इस तथ्य पर जाता है कि... इस आरती के पदों में ब्रम्हा-विष्णु-महेश तीनो की स्तुति है..
एकानन (एकमुखी, विष्णु), चतुरानन (चतुर्मुखी, ब्रम्हा) और पंचानन (पंचमुखी, शिव) राजे..
हंसासन(ब्रम्हा) गरुड़ासन(विष्णु ) वृषवाहन (शिव) साजे..
दो भुज (विष्णु), चार चतुर्भुज (ब्रम्हा), दसभुज (शिव) अति सोहे..
अक्षमाला (रुद्राक्ष माला, ब्रम्हाजी ), वनमाला (विष्णु ) रुण्डमाला (शिव) धारी..
चंदन (ब्रम्हा ), मृगमद (कस्तूरी विष्णु ), चंदा (शिव) भाले शुभकारी (मस्तक पर शोभा पाते हैं)..
श्वेताम्बर (सफेदवस्त्र, ब्रम्हा) पीताम्बर (पीले वस्त्र, विष्णु) बाघाम्बर (बाघ चर्म ,शिव) अंगे..
ब्रम्हादिक (ब्राह्मण, ब्रह्मा) सनकादिक (सनक आदि, विष्णु ) प्रेतादिक (शिव ) संगे (साथ रहते हैं)..
कर के मध्य कमंडल (ब्रम्हा), चक्र (विष्णु), त्रिशूल (शिव) धर्ता..
जगकर्ता (ब्रम्हा) जगहर्ता (शिव ) जग पालनकर्ता (विष्णु)..
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका (अविवेकी लोग इन तीनो को अलग अलग जानते हैं।)
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका
(सृष्टि के निर्माण के मूल ऊँकार नाद में ये तीनो एक रूप रहते है... आगे सृष्टि-निर्माण, सृष्टि-पालन और संहार हेतु त्रिदेव का रूप लेते हैं.
संभवतः इसी त्रि-देव रुप के लिए वेदों में ओंकार नाद को ओ३म् के रुप में प्रकट किया गया है ।
कुलदेवी और कुलदेवता कौन है
चार प्रकार के युग होते हैं सबसे पहले
1,सतयुग या देवी-देवता का युग। इस युग में सिर्फ देवी-देवता ही मिलते थे।इस युग में आदमी की आयु 1000 साल 10,000 साल तक की मानी गई है इस युग में कोई बीमारी नहीं थी आदमी का रहन-सहन भगवान् की तरह था इसलिए अपने पूर्वज देवी-देवता थे इसलिए आज अपने घरों में भगवान् की जगह कुलदेवी और कुलदेवता की पूजा होती है।
2, त्रेतायुग इस युग में आदमी की आयु आयु 100 साल से 500 साल तक की होती थी इस युग में देवताओं के साथ-साथ इन्सान का भी जनम हो गया था और इन्सानो में देववृति के साथ-राक्षस प्रवृति भी आ गई थी और आदमी का व्यवहार भगवान् के साथ-साथ राक्षसों जैसा हो गया। इसयुग में भगवान् श्री राम का अयोध्या में जन्म हुआ। तभी तो भगवान् को भी इन्सान की बजय से कष्टों का सामना करना पड़ा।
3, तीसरा युग दुआपर युग के नाम से जाना जाता है इस युग में आदमी की आयु 100 साल से 200 साल मानी गई है इस युग में भगवान् श्री कृष्ण का जन्म हुआ इसीयुग में देववृति कम हो गई और राक्षस प्रवृति ज्यादा बढ गई इसी बजय से महाभारत का युद्ध हुआ
4, कलयुग। इस युग में देवी-देवता मानों गायब हो गयें। मुश्किल से कुछ ही मनुष्यों में देवी-देवता जैसे लक्षण दिखाई देते है।हर तरफ राक्षस प्रवृति के लोग दिखाई देते है। हर आदमी में हिंसक प्रवृति दिखाई देती हैं दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है हर युग का समय निश्चित है इसयुग के बाद बापस सतयुग यानी देवी-देवताओ का युग आयेगा।
इसीलिए कहाँ जाता है कि हमारे पूर्वज देवी-देवता थे और हमारे घर में आज भी हमारे पूर्वजों की भगवान् से पहले कुलदेवी और कुलदेवता के रूप में पूजा होती है।
The mysterious ancient pyramid shaped Shiv Mandir of Cambodia. Located deep in a jungle 120 kms away from the Angkor site, Siam Reap, Cambodia is the site of the mysterious Koh Ker pyramid. Part of the Kymer empire, this massive 10th cen C.E 7 tier pyramid stands ~120 ft tall and houses two large Shivling each over 7ft tall!
Koh Ker was earlier known as Lingaura ("city of lingams") and was the capital of the Khymer Empire. It was developed by Kings Jayavarman IV and Harshavarman II, both of whom were adrent Shiva devotees.
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शूद्रदलितअछूतऔरमंदिर
हजारों साल से #शूद्र_दलित मंदिरों मे पूजा करते आ रहे थे पर अचानक 19वी शताब्दी में ऐसा क्या हुआ कि दलितों को 5 साल मंदिरों मे प्रवेश नकार दिया गया? क्या आप सबको इसका सही कारण मालूम है? या सिर्फ ब्राह्मणों को गाली देकर मन को झूठी तसल्ली दे देते हैं ?
पढिये सबूत के साथ क्या हुआ था उस समय ? अछूतों को मन्दिर में न घुसने देने की सच्चाई क्या है? ये काम पुजारी करते थे कि मक्कार अंग्रेजो के लूटपाट का षडयंत्र था?
1932 में #लोथियन_कॉमेटी की रिपोर्ट सौंपते समय डॉ आंबेडकर ने अछूतों को मन्दिर में न घुसने देने का जो उदाहरण पेश किया है वह वही लिस्ट है जो अंग्रेजो ने कंगाल यानि गरीब लोगों की लिस्ट बनाई थी जो मन्दिर में घुसने देने के लिए अंग्रेजों द्वारा लगाये गए टैक्स को देने में असमर्थ थे जिसे वर्तमान समय के लेखक और इतिहासकार समाज को दूषित और विभाजित-विखंडित करने में प्रयोग कर रहे हैं...
षडयंत्र : -- मित्रों 1808ई० में ईस्ट इंडिया कंपनी पूरी के जगन्नाथ मंदिर को अपने कब्जे में लेती है और फिर लोगो से कर बसूला जाता है तीर्थ यात्रा के नाम पर । चार ग्रुप बनाए जाते हैं और चौथा ग्रुप जो कंगाल है उनकी एक लिस्ट जारी की जाती हैं।
1932 ई० में जब डॉ आंबेडकर अछूतों के बारे में लिखते हैं तो वे ईस्ट इंडिया के जगन्नाथ पुरी मंदिर के दस्तावेज की लिस्ट को अछूत बनाकर लिखते हैं जिसे वर्तमान समय के लेखक और इतिहासकार जानकर भी आपके समक्ष बताना नहीं चाहते..
भगवान जगन्नाथ के मंदिर की यात्रा को यात्रा कर में बदलने से ईस्ट इंडिया कंपनी को बेहद मुनाफ़ा हुआ और यह 1809 से 1840 तक निरंतर चला।जिससे अरबो रूपये सीधे अंग्रेजो के खजाने में बने और इंग्लैंड पहुंचे।
श्रद्धालु यात्रियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता था : -
▪️प्रथम श्रेणी = लाल जतरी (उत्तर के धनी यात्री )
▪️द्वितीय श्रेणी = निम्न लाल (दक्षिण के धनी यात्री )
▪️तृतीय श्रेणी = भुरंग ( यात्री जो दो रुपया दे सके )
▪️चतुर्थ श्रेणी = पुंज तीर्थ (कंगाल की श्रेणी जिनके पास दो रूपये भी नही ,तलासी लेने के बाद )
चतुर्थ श्रेणी के नाम इस प्रकार हैं : --
- लोली या कुस्बी!
- कुलाल या सोनारी!
3.मछुवा!
4.नामसुंदर या चंडाल
5.घोस्की
6.गजुर
7.बागड़ी
8.जोगी
9.कहार - राजबंशी
11.पीरैली - चमार
13.डोम
14.पौन
15.टोर
16.बनमाली
17.हड्डी
प्रथम श्रेणी से 10 रूपये!
द्वितीय श्रेणी से 6 रूपये!
तृतीय श्रेणी से 2 रूपये और चतुर्थ श्रेणी से कुछ नही!
अब जो कंगाल की लिस्ट है जिन्हें हर जगह रोका जाता था और मंदिर में नही घुसने दिया जाता था ।
आप यदि उस समय 10 रूपये भर सकते तो आप सबसे अच्छे से ट्रीट किये जायेंगे ।
डॉ_आंबेडकर ने अपनी #Lothian_Commtee_Report में इसी लिस्ट का जिक्र किया है और कहा की कंगाल पिछले 100 साल में कंगाल ही रहे।
पढिये : -
"In regard to the depressed classes of Bengal there is an important piece of evidence to which I should like to call attention and which goes to show that the list given in the Bengal Census of 1911 is a correct enumeration of caste which have been traditionally treated as untouchable castes in Bengal. I refer to Section 7 of Regulation IV of 1809 (A regulation for rescinding Regulations IV and V of 1806 ; and for substituting rules in lieu of those enacted in the said regulations for levying duties from the pilgrims resorting to Jagannath, and for the superintendence and management of the affairs of the temple; passed by the Governor-General in Council, on the 28th of April 1809) which gives the following list of castes which were debarred from entering the temple of Jagannath at Puri : (1) Loli or Kashi, (2) Kalal or Sunri, (3) Machhua, (4) Namasudra or Chandal, (5) Ghuski, (6) Gazur, (7) Bagdi, (8) Jogi or Nurbaf, (9) Kahar-Bauri and Dulia, (10) Rajbansi, (II) Pirali, (12) Chamar, (13) Dom, (14) Pan, (15) Tiyar, (16) Bhuinnali, and (17) Hari.
The enumeration agrees with the list of 1911 Census and thus lends support to its correctness. Incidentally it shows that a period of 100 years made no change in the social status of the untouchables of Bengal.
बाद में वही कंगाल षडयंत्र के तहत अछूत बनाये गए ।
सनातन धर्म में छुआछुत किसी जाति विशेष के लिए कभी था ही नहीं।यदि ऐसा होता तो सभी हिन्दुओ के श्मशानघाट और चिता अलग अलग होती।
और मंदिर भी जातियों के हिसाब से ही बने होते और हरिद्वार में अस्थि विसर्जन भी जातियों के हिसाब से ही होता।
ये जातिवाद अन्य धर्मों में है इन में जातियों और फिरको के हिसाब से अलग अलग प्रार्थना स्थल और अलग अलग इबादतगाह और अलग अलग कब्रिस्तान बने हैं।
हिन्दूऔ में जातिवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद,धर्मनिपेक्षवाद, जड़वाद, कुतर्कवाद, गुरुवाद, राजनीतिक पार्टीवाद पिछले 1000 वर्षों से अरब आक्रमणकारियों और अग्रेजी शासको ने षडयंत्र से डाला है ।
भारतीय इतिहास और Lothian Commtee Report
Do you know why we break a coconut when we go to a temple?
Its the process of breaking the coconut which we have to imbibe within ourselves.
You first tear away the husk from the coconut.
That husk is your wishes, desires. You need to leave it.
Then comes the hard shell.. that’s the ego. You need to break that.
What flows out is water.. which is all things which are negative inside you flows out.
Left behind is the coconut pure white.. that is the soul.
जब दिन और रात बराबर होते हैं (२१ मार्च और २३ सितंबर) तो सूर्य केरल के पद्मनाभनमी मंदिर की ५ खिड़कियों में से प्रत्येक में ५ मिनट के लिए दिखाई देता है। 1566 CE (AD) में निर्मित।
भारत के महान प्रसिद्ध तीर्थ निके दर्शन कीजिए.pdf
Temples and Locations Quiz_4April.pdf
https://issuu.com/soumyasengupta8/docs/unitiii-evolutionofhindutemplearchi
https://whc.unesco.org/en/tentativelists/5972/
https://www.youtube.com/watch?v=ITD-xcIG1f8&list=WL&index=44
Bharti Raizada
तीर्थाटन की परम्परा जीवन के तीसरे चौथे चरण के लिए बनी थी। अपने गृहस्थ धर्म के उत्तरदायित्वों से मुक्ति पा कर पूर्णतः ईश्वर में लीन हो चुके बुजुर्ग जब तीर्थ को निकलते थे तो उस भूमि के कण कण को प्रणाम करते चलते थे। मन जब हर नदी, तालाब, पर्वत या बृक्ष में ईश्वर को देखने लगे, जब हर जीव में ईश्वर का अंश दिखने लगे, तब घूमते हैं तीर्थ.
बहुत ज्यादा उम्र नहीं हुई मेरी, पर दूर गाँव से काशी आ कर गङ्गा मइया को देखते ही रो पड़ने वाले बुजुर्गों को भी देखा है मैंने। मैंने देखा है विंध्याचल के सामान्य घरों को भी श्रद्धा से प्रणाम करते चलती माताओं को... बेटा यदि एक बार काशीजी, अजोधाजी, प्रयागराज घुमा दे तो उल्लासित मन से उसे भर भर कर आशीष देती और उसके सारे अपराध माफ करती माताएं! जैसे जीवन में इससे बड़ा कोई काम नहीं.
बकरी बेच कर बैजनाथ धाम में जल चढ़ाने गया कोई बूढ़ा व्यक्ति जब डेढ़ सौ रुपये में खरीदे गए प्रसाद को घर आ कर सत्तर पुड़िया बना कर गाँव भर को बांटता है, तो उसके चेहरे पर आस्था नहीं, सीधे ईश्वर दिखते हैं। और मैंने ऐसे असंख्य ईश्वरीय चेहरों को देखा है। आपकी आस्था का स्तर यह हो तो कीजिये तीर्थ.
लोक में तीर्थ की महिमा यह है कि हमारे गाँव के लोग जब गया पिंडदान करने जाते तो समूचा गाँव गाजे बाजे के साथ उनके पीछे पीछे कुछ दूर तक छोड़ने जाता था। तीर्थ से लौटे व्यक्ति को तो अब भी हर सभ्य देहाती प्रणाम कर के आशीर्वाद लेता है। जैसे तीर्थ घूम लेने भर से उस व्यक्ति में कुछ दैवीय अंश आ गया हो.
मैंने अनेक ऐसे लोगों को भी देखा है जो केदार-बदरी की यात्रा के बाद अपने गृहस्थ जीवन से विरक्त से हो गए। झगड़ों में नहीं पड़ेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे, लहसुन प्याज नहीं खाएंगे, किसी जीव पर प्रहार नहीं करेंगे... जैसे तीर्थ कर लेने से सबकुछ बदल गया हो! यह तीर्थ के प्रति सनातन आस्था है।
काशी विश्वनाथ या वैद्यनाथ धाम में जल चढ़ाने के लिए लगी लम्बी लाइनों में हर हर महादेव के नारों के बीच दसों बार मैं रोया हूँ... ईश्वर के सामने पहुँच कर अनायास ही मन भर उठता है भाई... यह सामान्य आस्था है! यह न हो कोई अर्थ नहीं तीर्थ का.
The_Gods_Within_The_Vedic_Tradition_and.pdf
मंदिर जाना जरूरी है
1.पहला लाभ
मंदिर जाना इसलिए जरूरी है कि वहां जाकर आप यह सिद्ध करते हैं कि आप देव शक्तियों में विश्वास रखते हैं तो देव शक्तियां भी आपमें विश्वास रखेंगी। यदि आप नहीं जाते हैं तो आप कैसे व्यक्त करेंगे की आप परमेश्वर या देवताओं की तरफ है.? यदि आप देवताओं की ओर देखेंगे तो देवता भी आपकी ओर देखेंगे। और यह भाव मंदिर में देवताओं के समक्ष जाने से ही आते हैं।
2.दूसरा लाभ
अच्छे मनोभाव से जाने वाले की सभी तरह की समस्याएं प्रतिदिन मंदिर जाने से समाप्त हो जाती है। मंदिर जाते रहने से मन में दृढ़ विश्वास और उम्मीद की ऊर्जा का संचार होता है। विश्वास की शक्ति से ही समृद्धि, सुख, शांति और कल्याण की प्राप्ति होती है।।
3.तीसरा लाभ
यदि आपने कोई ऐसा अपराध किया है कि जिसे आप ही जानते हैं तो आपके लिए प्रायश्चित का समय है। आप क्षमा प्रार्थना करके अपने मन को हल्का कर सकते हैं। इससे मन की बैचेनी समाप्त होती है और आप का जीवन फिर से पटरी पर आ जाता है।।
4.चौथा लाभ
मंदिर में शंख और घंटियों की आवाजें वातावरण को शुद्ध कर मन और मस्तिष्क को शांत करती हैं। धूप और दीप से मन और मस्तिष्क के सभी तरह के नकारात्मक भाव हट जाते हैं और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।।
5.पांचवां लाभ
मंदिर के वास्तु और वातावरण के कारण वहां सकारात्मक उर्जा ज्यादा होती है। प्राचीन मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के केंद्र थे।
हमारे प्राचीन मंदिर वास्तुशास्त्रियों ने ढूंढ-ढूंढकर धरती पर ऊर्जा के सकारात्मक केंद्र ढूंढे और वहां मंदिर बनाए। मंदिर में शिखर होते हैं।शिखर की भीतरी सतह से टकराकर ऊर्जा तरंगें व ध्वनि तरंगें व्यक्ति के ऊपर पड़ती हैं। ये परावर्तित किरण तरंगें मानव शरीर आवृत्ति बनाए रखने में सहायक होती हैं।व्यक्ति का शरीर इस तरह से धीरे-धीरे मंदिर के भीतरी वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस तरह मनुष्य असीम सुख का अनुभव करता है।।
6.छटा लाभ
मंदिर में उपस्थित व्यक्ति के मन में चंचलता चपलता कम होती है, और पवित्रता के विचार ज्यादा प्रबल होते हैं, चाहे वह ईश्वर के डर से या फिर ईश्वर के प्रति प्रेम व श्रद्धा के कारण। लेकिन इस तरह का निश्चल मन अपने आसपास के वातावरण को पवित्र बनाता है, इसलिए मंदिर में स्वत ही सकारात्मकता पवित्रता वाली ऊर्जा कुछ ज्यादा होती है जिसका लाभ वहां जाने वाले प्रत्येक व्यक्तियों को मिलता है।।
7.सातवा लाभ
मंदिर में जाने से हम अपने आसपास के लोगों से मिलते जुलते हैं जिससे सामाजिक सौहार्द का वातावरण बनता है।
और आपसी सामाजिक सौहार्द व सनातन धर्मावलंबियों में एकता वर्तमान की परिस्थितियों को देखते हुए अति आवश्यक भी है।।