Moksha or Mukti or Nihsreyasa
Mukti is of two types- personal and impersonal.
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Impersonal Mukti is also known as Kaivalya or Sayujya. It is via the way of gyan marg. It is absolute unity or merger with Bhagwan. Kaivalya means free from material entanglements. It is a pure atma. It is only atma, nothing else. Root word of Kaivalya is Kevala which means alone or only.
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Personal mukti can be attained by Bhakti marg. It is of four types-
- Salokya- Means living in the lok of Bhagwan
- Sarupya- Means assuming a body form which is very similar to Bhagwan
- Sarshti- Means attaing an opulence which is similar to Bhagwan
- Samipya- Means staying near Bhagwan.
Some believe that it is easier to get mukti. It is comparatively harder to go on the way of karm and bhakti yog.
ब्रह्मानन्द ही - काटे बन्धन
दानी वो है महान्
श्रेष्ठ धनों में - मोक्ष का धन ही
करे जीवन-कल्याण
जग प्रवेश पहले मैं मुक्त था
बीती अवधि जग में आया
जग माया में घिरकर पाया,
लोभ मोह मद काम
श्रेष्ठ धनों में - मोक्ष का धन ही
करे जीवन-कल्याण
सोना चाँदी धन के कारण
भय संशय में फँसा अकारण
मोक्ष ही भय संशय को भगाये
आत्मा बने बलवान
श्रेष्ठ धनों में - मोक्ष का धन ही
करे जीवन-कल्याण
घृत में जो है सुगन्ध पहले
अग्नि में जलकर सुदूर फैले
कैसा अनुपम त्याग का फल है
त्यागशील निष्काम
श्रेष्ठ धनों में - मोक्ष का धन ही
करे जीवन-कल्याण
मोक्ष में मन वाणी हट जाये
वर्णन ना इसका कर पाये
यज्ञ से ब्रह्मानन्द को पाये
यज्ञिय देव महान्
श्रेष्ठ धनों में - मोक्ष का धन ही
करे जीवन-कल्याण
त्याग यज्ञ आदेश है तेरा
जो काटे जन्मों का फेरा
गिरते पड़ते संयम सीखें
त्याग में आत्म-समिधान
श्रेष्ठ धनों में - मोक्ष का धन ही
करे जीवन-कल्याण
प्रभु आदेश जो पालन करते
बन्धन खोल सुधा रस भरते
कर ईश्वर को पूर्ण समर्पण
मोक्ष का ले वरदान
श्रेष्ठ धनों में - मोक्ष का धन ही
करे जीवन-कल्याण
ब्रह्मानन्द ही - काटे बन्धन
दानी वो है महान्
श्रेष्ठ धनों में - मोक्ष का धन ही
करे जीवन-कल्याण
भगवान हमें अनेक दान देते हैं।वे सब बढ़िया हैं,एक से एक बढ़कर हैं।जो मनुष्यों को रत्न देता है,वह हमें इस जीवन में श्रेष्ठ धन दे,' इस जीवन में,आज ही श्रेष्ठ धन मिलना चाहिए।ना जाने कल क्या हो जाए? श्रेष्ठ धनों में सबसे श्रेष्ठ धन मोक्ष धन है। परमात्मा,यज्ञिय देवों के लिए सबसे पहला और उत्तम मोक्षरूप भाग देता है।
इस के संसार के चक्कर में आने से पहले मैं मुक्त था।जब मेरी अवधि समाप्त हो गई संसार में फिर से आना पड़ा, जबकि मुक्ति का पाना मेरी प्राथमिकता थी जो कि उत्तम भाग था।
उस मोक्ष प्राप्ति पर सब भय नष्ट हो जाते हैं,वह भय जो सोना चांदी धन मकान आदि को लेकर लगे रहते हैं वह मोक्ष प्राप्त करके नष्ट हो जाते हैं।ह्मानन्द को प्राप्त कर मनुष्य कभी कहीं से नहीं डरता। वाणी मुक्ति का वर्णन नहीं कर सकती है।
मुक्ति के अधिकारी यज्ञिय देव हैं। भौतिक और आध्यात्मिक यज्ञ के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
जब अग्नि में हम घी डालते हैं पहले यज्ञ के चारों ओर फिर दूर सुदूर तक सुगंध फैल जाती है।इदन्नमम् कहके हम त्याग का परिचय देते हैं।हम इसे महसूस करते हुए अहंकार से मुक्त हो जाते हैं।
जिन्होंने भगवान के आदेशों का पालन किया और उसमें समर्पित हो गए,भगवान ने उनके बन्धन खोल दिए।इन बन्धनों का कटना ही तो मुक्ति है।इति।
Rigved 4-54-1 to 5
गले का कैंसर था। पानी भी भीतर जाना मुश्किल हो गया, भोजन भी जाना मुश्किल हो गया। तो विवेकानंद ने एक दिन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस से कहा कि " आप माँ काली से अपने लिए प्रार्थना क्यों नही करते ? क्षणभर की बात है, आप कह दें, और गला ठीक हो जाएगा ! तो रामकृष्ण हंसते रहते , कुछ बोलते नहीं। एक दिन बहुत आग्रह किया तो रामकृष्ण परमहंस ने कहा - " तू समझता नहीं है रे नरेन्द्र। जो अपना किया है, उसका निपटारा कर लेना जरूरी है। नहीं तो उसके निपटारे के लिए फिर से आना पड़ेगा। तो जो हो रहा है, उसे हो जाने देना उचित है। उसमें कोई भी बाधा डालनी उचित नहीं है।" तो विवेकानंद बोले - " इतना ना सही , इतना ही कह दें कम से कम कि गला इस योग्य तो रहे कि जीते जी पानी जा सके, भोजन किया जा सके ! हमें बड़ा असह्य कष्ट होता है, आपकी यह दशा देखकर । " तो रामकृष्ण परमहंस बोले "आज मैं कहूंगा। "
जब सुबह वे उठे, तो जोर जोर से हंसने लगे और बोले - " आज तो बड़ा मजा आया । तू कहता था ना, माँ से कह दो । मैंने कहा माँ से, तो मां बोली -" इसी गले से क्या कोई ठेका ले रखा है ? दूसरों के गलों से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है ? "
हँसते हुए रामकृष्ण बोले -" तेरी बातों में आकर मुझे भी बुद्धू बनना पड़ा ! नाहक तू मेरे पीछे पड़ा था ना । और यह बात सच है, जाहिर है, इसी गले का क्या ठेका है ? तो आज से जब तू भोजन करे, समझना कि मैं तेरे गले से भोजन कर रहा हू। फिर रामकृष्ण बहुत हंसते रहे उस दिन, दिन भर। डाक्टर आए और उन्होंने कहा, आप हंस रहे हैं ? और शरीर की अवस्था ऐसी है कि इससे ज्यादा पीड़ा की स्थिति नहीं हो सकती ! रामकृष्ण ने कहा - " हंस रहा हूं इससे कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया कि मुझे खुद खयाल न आया कि सभी गले अपने ही हैं। सभी गलों से अब मैं भोजन करूंगा ! अब इस एक गले की क्या जिद करनी है !"
कितनी ही विकट परिस्थिति क्यों न हो, संत कभी अपने लिए नहीं मांगते, साधू कभी अपने लिए नही मांगते, जो अपने लिए माँगा तो उनका संतत्व ख़त्म हो जाता है । वो रंक को राजा और राजा को रंक बना देते है लेकिन खुद भिक्षुक बने रहते है ।
जब आत्मा का विश्वात्मा के साथ तादात्म्य हो जाता है तो फिर अपना - पराया कुछ नही रहता, इसलिए संत को अपने लिए मांगने की जरूरत नहीं क्योंकि उन्हें कभी किसी वस्तु का अभाव ही नहीं होता !
जय श्री माँ काली भद्रकाली