Sradh

Sradh or pitra paksha is observed from Purnima of Bhadra month to the Amavasya of the Ashwin month.
Sradh is not done in the first year. That year only food( jaw, green chara) is given to Cow and a cloth is placed over her.
The second-year Sradh is done for the person who died and on the tithi when he or she died.
From the third year, the sradh of all family members is done on the day/tithi of the eldest diseased person in the family.
Sradh for all the pitras is done on Amavasya day.
Sradh is done by the eldest son who took gathiya. Other brothers do daan but not full, proper sraddha.
Pandit is called at home, He is served food- Poori, green sabzi e.g. louki, bhindi, Kheer, etc. Turmeric is not used while making food. Daan is given to pandit Ji- milk, rice, green vegetables, aata, fruits, Dakshina, etc.

Pind Daan is done for those people who died without being placed on the floor before their death. No Daan was done by them at the last moment and the lamp was not lit at the time of their death. It is done in Haridwar or Kurukshetra. If Pinddaan is done in Gaya or Pushkar, then there is no need to do Sraddha ever after.

People who believe in Sradh have one or more of the following reasons:

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  • देववृक्ष कहे जाने वाले वट और पीपल को कौआ पक्षी प्रदत्त माना जाता है। अगर रात में आक्सीजन और विभिन्न बीमारियों की औषधि के लिए पीपल और वट वृक्ष चाहिए तो कौओं को बचाना होगा। इन्हें बचाने और वट- पीपल के पेड़ों को बढ़ाने के लिए ऋषि- मुनियों ने श्राद्ध के दिनों में कौओं को भोजन देने की परंपरा शुरू की थी।

श्राद्ध में पंचबलि (पांच जीवों को भोजन) देने की परंपरा है। इनमें एक काक बलि अर्थात कौआ को भोजन कराना है। इन दोनों वृक्षों के फल कौवे खाते हैं और उनके पेट में ही बीज उगने लायक होते हैं। कौवे जहां-जहां बीट करते हैं, वहां- वहां यह दोनों प्रजाति के पौधे उगते हैं। अगर इनके पौधों को उगाना है तो बिना कौवे की मदद से संभव नहीं है, इसलिए कौवे को बचाना पड़ेगा। बताया गया कि मादा कौआ भादो महीने में अंडा देती है। काक बच्चों को भी पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना जरूरी है, इसलिए ऋषि- मुनियों ने कौवों के नवजात बच्चों के लिए हर आंगन या छत में पौष्टिक आहार की व्यवस्था की ताकि कौवों की नई जनरेशन का पालन पोषण ठीक हो। यह प्रक्रिया श्राद्ध के रूप में प्रकृति रक्षण के लिए भी आवश्यक है इसलिए जब भी हम बरगद और पीपल के पेड़ों को देखते है, पूर्वज याद आते हैं।

  • आर्य समाज का सोच समझ समझ में नहीं आ रहा है कभी कहता है मूर्ति पूजा नहीं करना है और बहुत जगह आर्य समाज का मंदिर है और वेदों में देवताओं का वर्णन किया गया है तो क्या हम देवताओं का पूजा ना करें

  • तुम लोग फोन पर बात करते हो, तुम्हारी आवाज हवा से होती हुई दूसरे व्यक्ति तक जाती है यही श्रद्धा मे भी होता है, पितरो को उनके हिसाब से वही वस्तु मिलती है बदल करके.

  • फिर ग्रन्थ साहिब पे पंखा क्यों करते हैं?? और फिर श्रद्धा का कोई मूल्य नहीं.. दान कक कोई फल नहीं.. और फिर यज्ञ कर्म कैसे सही साबित करेंगे.. यज्ञ की हक़वी कैसे परमात्मा तक कैसे पहुँचती है.. मंत्र फिर सिर्फ शब्द समूह हैं.. मतलब निरर्थक

  • How the TV signal reaches your home? There is no direct connection between origin of the show and the viewer.

    • श्राद्ध कर्म प्रकृति और जीव जंतुओं से प्रेम सिखाता है जिन्होंने हमें जीवन दिया हमें सब कुछ दीया उनकी कृतज्ञता और स्मृति के लिए कुछ दिन शास्त्रों में निर्धारित किए हैं. यह कर्मकांड प्रकृति से जुड़ा हुआ बहुत मामूली और सामान्य वस्तुओं के साथ में किया जाता है

    • मूर्ख मधुमक्खी पुष्प से रस निकाल लेती है तो क्या पुष्प में विकृति आ जाती है उसी प्रकार पितर दी गयी सामग्री से उसके तत्व को ग्रहण कर लेते हैं। पितरो के उद्देश्य से श्रद्धापूर्ण किये गये कार्य को श्राद्धकर्म कहते हैं।

    • This is a process and time to remember ancestors. Young generation has an opportunity to learn about their ancestors.

  • This is the time to remember that we will also leave this body, like our ancestors. Only thing which will go with us is our karm. So it is time to reinforce our commitment towards good karms. Time to start working on detachment from material things.

प्रसाद
एक बार मैंने सुबह टीवी खोला तो जगत गुरु शंकराचार्य कांची कामकोटि जी से प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम चल रहा था।
एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि हम भगवान को भोग क्यों लगाते हैं?
हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं,
उसमें से भगवान क्या खाते हैं?
क्या पीते हैं?
क्या हमारे चढ़ाए हुए पदार्थ के रुप रंग स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है?
यदि नहीं तो हम यह कर्म क्यों करते हैं।
क्या यह पाखंड नहीं है?
यदि यह पाखंड है तो हम भोग लगाने का पाखंड क्यों करें?
मेरी भी जिज्ञासा बढ़ गई थी कि शायद प्रश्नकर्ता ने आज जगद्गुरु शंकराचार्य जी को बुरी तरह घेर लिया है देखूं क्या उत्तर देते हैं।
किंतु जगद्गुरु शंकराचार्य जी तनिक भी विचलित नहीं हुए।
बड़े ही शांत चित्त से उन्होंने उत्तर देना शुरू किया।
उन्होंने कहा यह समझने की बात है कि जब हम प्रभु को भोग लगाते हैं तो वह उसमें से क्या ग्रहण करते हैं।
मान लीजिए कि आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है?
~ तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है।
फिर वह पूछता है कि किसका है?
~ तब आप कहते हैं कि यह मेरा है।
फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि यह क्या है?
~ तब आप कहते हैं कि यह प्रसाद है।
फिर वह पूछता है कि किसका है?
~ तब आप कहते हैं कि यह हनुमान जी का है।
अब समझने वाली बात यह है कि लड्डू वही है।
उसके रंग रूप स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है,
तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया।
वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के अहंकार को हर लिया।
यह मेरा है का जो भाव था,
अहंकार था प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका हरण हो गया।
प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत स्वभाव का बनता है शीलवान होता है।
अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है।
इसलिए इसे पाखंड नहीं कहा जा सकता है।


Non believers have one or more of the following reasons:

After death, the body is cremated. Any food given after death can not reach the body as it has been cremated. After death, atma either takes rebirth or attains the Moksha. If atma attains the Moksha then it enjoys that period for 36,000 cycles of Srishti and 36.000 cycles of pralay before coming back in the cycle of life and death. If atma gets rebirth, it becomes a different Jeev, and it carries previous karma with it. In both cases, how is food going to reach atma? Anyway, atma does not even need food. It is not a material thing that needs material food. So, logically sraddha food can neither reach the body nor atma.

As per the Hindu belief system, Ganga takes away all the paaps, and if asthi visarjan is done in Ganga, then that person attains Moksha. Why do sraddha when Moksha has been attained?

Arya Samaj promotes Pitr Yagna for the living dependants.

Pranav Shastri Ji speaking on Shradh

For sure, it is time to remember ancestors, and it is good to feed people, cow, and crow. However, why use the wrong premise? What is the need to lie and assume that the food will reach the ancestors? Why not feed all animals and birds? Why only crow and cow? Why not feed them year-round? Why for only one month?

श्राद्ध कर्मकांड पर विभिन्न समाज सुधारकों के विचार

संत कबीर के श्राद्ध पर विचार जब संत कबीर बालक थे तथा गुरू रामानंद के आश्रम मे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब की एक घटना है :- ब्राहमण धर्म के अनुसार श्राद्ध मे कौओ को खाना खिलाने से मृत व्यक्ति की भूख शान्त हो जाती है ! अपने पिता के श्राद्ध के लिये गुरू रामानद ने सभी शिष्यो को अलग अलग सामग्री लाने की जिम्मेदारी दी ! बालक कबीर को खीर बनाने के लिये दूध लाने की जिम्मेदारी दी ! बालक कबीर आश्रम से दूर गाँव की ओर गये तो रास्ते में एक मरी हुई गाय दिखी ! कबीर वहीं रुक गये । इधर उधर से घास लाये। गाय को खिलाने के उद्देश्य से घास गाय के मुंह के आगे डाल दिया । बर्तन हाथ मे लेकर उसके पास बैठ गये ! दोपहर होने तक भी कबीर के नही आने पर रामानंद अपने अन्य शिष्यो के साथ कबीर की तलाश मे निकले ! गाँव की तरफ चल दिये । रास्ते में गाय के पास बैठे कबीर दिखाई दिये तो गुरू ने कहा- कबीर क्या कर रहे हो ? यहां क्यों बैठे हो ? कबीर ने कहा गुरूजी गाय के खड़ी होने का इन्तजार कर रहा हूँ , गाय खड़ी हो तो घास खाये, फिर दूध निकालू ! अन्य सारे शिष्य हँसने लगे, तब गुरू ने समझाया --- बेटे कबीर ! मरी हुई गाय खड़ी नही हो सकती है और ना ही यह घास खायेगी । और ना ही ये दूध दे सकती है ! बालक कबीर ने कहा गुरुजी जब मरा हुआ इंसान खाना खा सकता है तो मरी हुई गाय घास क्यों नहीं खा सकती है,,, दूध क्यों नही दे सकती ? गुरू रामानंद कबीर को गले लगाकर बोले तुम तो मेरे शिष्य नही गुरू हो ! आज आपने मुझे सच्ची और बहुत बड़ी शिक्षा दी है!

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गुरु नानक के श्राद्ध पर विचार - एक बार गुरू नानक देव जी भ्रमण करते हुए शिष्यों सहित तीर्थराज हरिद्वार गए | वहां उन्होनें देखा कि हजारों भावुक अन्ध विश्वासी श्रद्धालु लोग गंगा में खड़े होकर मरे हुए माता पिता आदि को पीनी द्वारा तर्पण व पिण्ड दान कर रहे हैं | नानक देव जी ने सोचा कि इन भोले लोगों कैसे समझाया जाय, अतः वे भी गंगा की धारा में खड़े होकर पंजाब की तरह मुहँ करके दोनों हाथों से गंगा का पानी फैंकने लगे | स्वयं से विपरीत दिशा में जल फैकते देख लोगों को आश्चर्य हुआ तो उन्होनें नानक देव जी से पूछा महाराज ! आप ये क्या कर रहे हैं ? सरल स्वभाव नानक बोले... "भाईयो, मैं अपने खेत को पानी दे रहा हूँ |" यह सुनकर सब लोग हंसे और नानक जी से कहने लगे... "महाराज इस प्रकार आपके खेतों में पानी पहुचना सम्भव है क्या ???" तब महात्मा नानक देव जी बोले... "ओ भोले लोगों मेरा पानी मेरे पंजाब प्रान्त के खेतों में नहीं पहुँचेगा तो तुम्हारे मरे हुए माता पिता जो किस योनि में किस देश में और अपने कर्मानुसार क्या फल भुगत रहे हैं, उन्हें तुम्हारा ये तर्पन पिण्ड दान कैसे पहुँचेगा ???"

"अतः इस पर विचार करो और अपने जीवित माता पिता और गुरूजनों को श्रद्धा व भक्ति भाव से तृप्त करो तो तुम्हारा कल्याण होगा अन्यथा आप दुःख सागर में गोते ही खाते रहोगे |"

श्राद्ध विषय पर स्वामी दयानंद जी के विचार

पितृयज्ञ’ अर्थात् जिस में जो देव विद्वान्, ऋषि जो पढ़ने-पढ़ाने हारे, पितर माता पिता आदि वृद्ध ज्ञानी और परमयोगियों की सेवा करनी। पितृयज्ञ के दो भेद हैं एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण। श्राद्ध अर्थात् ‘श्रत्’ सत्य का नाम है ‘श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धम्’ जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाय उस को श्रद्धा और जो श्रद्धा से कर्म किया जाय उसका नाम श्राद्ध है। और ‘तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितृन् तत्तर्पणम्’ जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जायें उस का नाम तर्पण है। परन्तु यह जीवितों के लिये है मृतकों के लिये नहीं।

  • सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास

  • महानन्द जी उच्चारण कर रहे थे कि श्राद्ध तो उसका किया जाता है जो मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जब यह आत्मा इस शरीर को त्याग देता है तो उस समय इस शरीर का श्राद्ध करते हैं या इस आत्मा का श्राद्ध करते हैं। महानन्द जी कहा करते हैं कि हम तो पितरों का श्राद्ध करते हैं, मैं तो अपने वैज्ञानिक और दार्शनिक रूपों से इनसे कहा करता हूँ कि अरे! क्या यह आत्मा तुम्हारा पितर है? क्या यह आत्मा तुम्हारा पौत्र है? क्या यह आत्मा तुम्हारी माता है? क्या यह आत्मा तुम्हारा गुरु है? दार्शनिक में इसका कोई उत्तर प्राप्त नहीं होता। जितना भी दार्शनिक रूपों पर जाते हैं तो मनः शब्द हमारे स्मरण आ जाता है, हम अपने इस सांसारिक संकल्प मात्र से, सीमित माता-पिता और पौत्रों का सांसारिक भौतिकता मान को उच्चता देते हैं, जहाँ आत्मा परमात्मा का संघर्ष आता है यह सब कुछ व्यर्थ हो जाता है, इस शरीर को त्यागने के पश्चात् इस आत्मा को किसी से कोई सम्बन्ध नहीं होता, इसका सम्बन्ध इसके कर्मों से होता है, न पुत्र से होता है, न पौत्र से होता है, न पत्नी से होता है, न गुरु और राजाजनों से होता है। हमारे ऋषियों ने कहा है कि उस समय इसके द्वारा केवल कर्मों की श्रृंखला रह जाती है और कुछ नहीं रहता। तो जहाँ आत्मा के द्वारा कर्म की विवेचना रह जाती है। इसके पश्चात् किसका श्राद्ध कर रहे हो? मुझे इसका उत्तर क्यों नहीं मिल रहा कि आज मैं तुमसे जानना चाहता हूँ कि हम श्राद्ध किसका करें? जब हमारे शरीर का इस आत्मा से कोई सम्बन्ध ही नहीं हैं तुम कहो कि हम शरीर के लिए श्राद्ध करते हैं तो अवश्य करना चाहिए। जब तक शरीर होता है, जैसा मैंने कल कहा था कि हमें वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम में नाना प्रकार की उच्च से उच्च सुविधाएं देकर इनकी सेवा करनी चाहिए, मृत्यु के पश्चात् श्राद्ध का प्रश्न आता है वहाँ यह सब कुछ समाप्त हो जाता है इसीलिए शरीर के श्राद्ध का प्रश्न ही नहीं उठता। जब यह आत्मा इस शरीर से निकल जाता है, तो क्या हम उस मृतक शरीर का श्राद्ध करें या उस आत्मा का श्राद्ध करें, या हम सन्यासी और वानप्रस्थियों का श्राद्ध करें। महानन्दजीः- गुरुजी! हमारे विचार में तो यह आता है कि मृतकों का श्राद्ध करना चाहिए। तो तुम्हारे विचारों में जो वाक्य आता है वह भी किसी स्थान में सुन्दर माना जाता है। हमारे वेदाचार्यों ने अन्त्येष्टि संस्कार को कहा है, जब अन्त्येष्टि संस्कार हो तो यज्ञशाला में समिधा और नाना सुगन्धिदायक पदार्थों से, वह संस्कार करना चाहिए, हो सकता है तुम इसको श्राद्ध कहते हो, आत्मा की शान्ति के लिए मानव की सेवा करना सबसे प्रथम कर्त्तव्य है, आज जिस विद्या को उनसे पान किया है उस विद्या को लेना तुम्हारा कर्त्तव्य है क्योंकि यदि तुम उसकी विद्या को ग्रहण कर लोगे, तो हो सकता है उसी स्थान में उसी ऊँचे परिवार में जन्म लो, जहाँ पुनः उस विद्या में पुजारी बनो।

हमारे ऋषियों की परम्परा कितनी विशाल कहलाई गई है, ऋषिजनों ने जिस विद्या का पान किया, उस विद्या का वानप्रस्थियों द्वारा सब ही ने श्रवण करने का प्रयत्न किया है, सबने उस विद्या का पान किया और निकाला कि उन आत्माओं का अगले जन्मों में उन्हीं संस्कारों वाले व्यक्तियों के द्वारा जन्म होता है जहाँ सूक्ष्म सी विद्या पान करने से वह विद्या पुनः से उनके द्वारा आ जाती है, उस विद्या को श्राद्ध पूर्वक अपने में रमण कर लेना चाहिए, यह सब कुछ हमारे आचार्यों का कथन है। हम उच्चारण कर रहे थे कि हमें श्राद्ध करना चाहिए, जब यह आत्मा इस शरीर को त्याग देता है उस समय जिसके जैसे कर्म होते उन्हीं कर्मों की श्रृंखला इसके साथ रहती है, जैसा मैंने इसके पूर्व अभी-अभी कहा है उस समय न इसके द्वारा पुत्र का ही कोई सम्बन्ध रहता है, न पत्नी का, न पुत्री का और न राज्य का रहता है, केवल कर्म साथ रहते हैं और उन्हीं संस्कारों में उसका जन्म हो जाता है। अब मेरे विचार में नहीं आता कि तुम मृतकों का श्राद्ध करते हो या जीवितों का? भगवन्! मैं तो मृतकों का श्राद्ध किया करता हूँ। अरे, क्यों? भगवन्! आपने एक समय कहा है कि मैंने इस संसार को द्वापर से पूर्व देखा और उसके पश्चात् नहीं देखा। तो भगवन् आपका श्राद्ध करता चला आ रहा हूँ पुनः से, यदि मैं श्राद्ध न करता तो आप मुझे प्राप्त नहीं होते, तो भगवन् मैं तो मृतकों का श्राद्ध किया करता हूँ। तुम हमारा श्राद्ध करते चले जाओ तो अच्छी ही वार्त्ता है, इससे जीवन का उत्थान ही होता है, जो गुरुओं के वचनों का श्राद्ध करता है वह उसका सौभाग्य है, तुम हमारे वचनों का श्राद्ध करते हो या हमारे शरीर का श्राद्ध करते हो? प्रभु मैं आपके वचनों का श्राद्ध करता हूँ परन्तु शरीर का भी किसी-किसी काल में कर देता हूँ। मैं तुमसे एक प्रश्न और जानना चाहता हूँ कि तुम मृतकों का श्राद्ध कैसे करते हो? किस रूप से श्राद्ध करते हो? भगवन्! मैं यह श्राद्ध इसलिए करता चला आया हूँ कि मुझे गुरुदेव की प्राप्ति हो, मुझे उस आत्मा का पुनः से सम्बन्ध प्राप्त हो। तो वास्तव में ऐसा श्राद्ध तो मनुष्य को करना चाहिए कि जो आत्मा अपने से बिछुड़ जाता है और जिस आत्मा के कार्यों की ऊँची श्रृंखलाएं हैं वह संसार में पुनः से उत्थान करने के लिए आए, यह श्राद्ध तो बहुत अच्छा है। परन्तु हम यह भी जानना चाहते हैं कि तुम हमारे कर्मों का श्राद्ध करते चले आए हो या किसी और वस्तु का? प्रभु! यह तो आप ही जानते हैं कि कहीं कर्मों का भी श्राद्ध होता है, कर्मों का श्राद्ध नहीं होता, मृतकों का श्राद्ध होता है। मृतकों का श्राद्ध नहीं होता, जीवित का श्राद्ध होता है। प्रभु! जब जीवित का श्राद्ध होता है तो जीना और मृत्यु क्या पदार्थ है? वास्तव में देखा जाता है तो जीवन और मृत्यु कोई पदार्थ नहीं है। जब हम ज्ञान और विज्ञान के ऊँचे शिखर पर पहुँच कर, इन पर अनुसन्धान करते हैं तो विचार आता है कि यह जो मृत्यु और जीवन है यह कोई मूल्यवान वस्तु नहीं है, मैं यह पूर्व कह चुका हूँ कि जीवन-मृत्यु कोई पदार्थ नहीं केवल अज्ञानता का शब्दार्थ ह

आज ऊपर बैठी रूह ने ...
बड़ा ठहाका लगाया है.
देखो .. आज मेरे बच्चों ने
पंडित को बुलाया है.
कितने जतन से पकवान बनाया है, और
बड़े ही आदर भाव से खिलाया है.
जिसके लिए मुझे तरसाया था ..
वही सब आज बनाया है.
और तो और ....
कौवे और कुत्ते को भी
दावत में बुलाया है.
बड़े ही प्यार से
इनको भी खाना खिलाया है.
जगह नहीं थी मेरे लिए घर में
वृद्धाश्रम पहुँचाया था,
आज मेरा फोटो
भगवान के साथ ही लगाया है.
पैसा ही नहीं था मेरे लिए
आज पंडित को
हरा नोट सरकाया है.
देखो !! कैसे दिखावा कर रहे हैं,
अपने आप से ही छलावा कर रहे हैं.
ये सब मेरे सताने के डर से कर रहे हैं.
अरे ! इन्हें इतना भी नहीं पता,
क्या माँ-बाप होते हैं कभी खफ़ा ?
बस ... सभी बच्चों से ...
इतनी सी गुज़ारिश है
मेरे साथ रहने वालों की भी
सिफ़ारिश है.
मरने के बाद नहीं,
माँ-बाप का जीते जी करो सम्मान.
नहीं चाहते हैं वो पैसे, न चाहें पकवान..
बस थोड़ा सा समय निकालो,
थोड़ी सी घर में जगह दो, और ...
रखो उनका ध्यान..!
अपने पूर्वज पितृदेव
पितृलोक से
पितृ संदेश

पितृ-दोष एवं पितृ पक्ष byRecharging life
“पितृ-दोष की शांति के कुछ सरल अनुभूत और परीक्षित उपाय पितृ पक्ष में आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं”
1 सामान्य उपायों में षोडश पिंड दान ,सर्प पूजा ,ब्राह्मण को गौ -दान ,कन्या -दान,कुआं ,बावड़ी ,तालाब आदि बनवाना , मंदिर प्रांगण में पीपल , बड़(बरगद) आदि देव वृक्ष लगवाना एवं विष्णु मन्त्रों का जाप आदि करना , प्रेत श्राप को दूर करने के लिए श्रीमद्द्भागवत जी का पाठ करना चाहिए, यह 100 प्रतिशत परीक्षित उपाय है। श्री गीता जी का पाठ करके पितरों को फल देने से पितृ दोष का समूल नाश हो जाता है।
2 वेदों और पुराणों में पितरों की संतुष्टि के लिए मंत्र ,स्तोत्र एवं सूक्तों का वर्णन है जिसके नित्य पठन से किसी भी प्रकार की पितृ बाधा क्यों ना हो ,शांत हो जाती है अगर नित्य पठन संभव ना हो , तो कम से कम प्रत्येक माह की अमावस्या और आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या अर्थात पितृपक्ष में अवश्य करना चाहिए।
वैसे तो कुंडली में किस प्रकार का पितृ दोष है उस पितृ दोष के प्रकार के हिसाब से पितृदोष शांति करवाना अच्छा होता है।
3 भगवान भोलेनाथ की तस्वीर या प्रतिमा के समक्ष बैठ कर या घर में ही भगवान भोलेनाथ का ध्यान कर निम्न मंत्र की एक माला नित्य जाप करने से समस्त प्रकार के पितृ- दोष संकट बाधा आदि शांत होकर शुभत्व की प्राप्ति होती है |मंत्र जाप प्रातः या सायंकाल कभी भी कर सकते हैं :
मंत्र : “ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय च धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात”।
4 अमावस्या को पितरों के निमित्त पवित्रता पूर्वक बनाया गया भोजन तथा चावल बूरा ,घी एवं एक रोटी गाय को खिलाने से पितृ दोष शांत होता है।
5 अपने माता -पिता ,बुजुर्गों का सम्मान,सभी स्त्री कुल का आदर /सम्मान करने और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से पितर हमेशा प्रसन्न रहते हैं।
6 पितृ दोष जनित संतान कष्ट को दूर करने के लिए “हरिवंश पुराण ” का श्रवण करें या स्वयं नियमित रूप से पाठ करें।
7 प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती या सुन्दर काण्ड का पाठ करने से भी इस दोष में कमी आती है।
8 सूर्य पिता है अतः ताम्बे के लोटे में जल भर कर ,उसमें लाल फूल ,लाल चन्दन का चूरा ,रोली आदि डाल कर सूर्य देव को अर्घ्य देकर ११ बार “ॐ घृणि सूर्याय नमः ” या “ॐ घृणि सूर्य आदित्योम”. मंत्र का जाप करने से पितरों की प्रसन्नता एवं उनकी ऊर्ध्व गति होती है।

  1. अमावस्या वाले दिन अवश्य अपने पूर्वजों के नाम दुग्ध ,चीनी ,सफ़ेद कपडा ,दक्षिणा आदि किसी मंदिर में अथवा किसी योग्य ब्राह्मण को दान करना चाहिए।
  2. . पितृ पक्ष में पीपल की परिक्रमा अवश्य करें अगर १०८ परिक्रमा लगाई जाएँ ,तो पितृ दोष अवश्य दूर होगा।
    विशिष्ट उपाय :
  3. किसी मंदिर के परिसर में पीपल अथवा बड़ का वृक्ष लगाएं और रोज़ उसमें जल डालें ,उसकी देख -भाल करें ,जैसे-जैसे वृक्ष फलता -फूलता जाएगा,पितृ -दोष दूर होता जाएगा,क्योकि इन वृक्षों पर ही सारे देवी -देवता ,इतर -योनियाँ ,पितर आदि निवास करते हैं।
  4. यदि आपने किसी का हक छीना है,या किसी मजबूर व्यक्ति की धन संपत्ति का हरण किया है,तो उसका हक या संपत्ति उसको अवश्य लौटा दें।
  5. पितृ दोष से पीड़ित व्यक्ति को किसी भी एक अमावस्या से लेकर दूसरी अमावस्या तक अर्थात एक माह तक किसी पीपल के वृक्ष के नीचे सूर्योदय काल में एक शुद्ध घी का दीपक लगाना चाहिए,ये क्रम टूटना नहीं चाहिए।
    एक माह बीतने पर जो अमावस्या आये उस दिन एक प्रयोग और करें
    इसके लिए किसी देसी गाय या दूध देने वाली गाय का थोडा सा गौ -मूत्र प्राप्त करें उसे थोड़े जल में मिलाकर इस जल को पीपल वृक्ष की जड़ों में डाल दें इसके बाद पीपल वृक्ष के नीचे ५ अगरबत्ती ,एक नारियल और शुद्ध घी का दीपक लगाकर अपने पूर्वजों से श्रद्धा पूर्वक अपने कल्याण की कामना करें,और घर आकर उसी दिन दोपहर में कुछ गरीबों को भोजन करा दें ऐसा करने पर पितृ दोष शांत हो जायेगा।
    4 घर में कुआं हो या पीने का पानी रखने की जगह हो ,उस जगह की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें,क्योंके ये पितृ स्थान माना जाता है इसके अलावा पशुओं के लिए पीने का पानी भरवाने तथा प्याऊ लगवाने अथवा आवारा कुत्तों को जलेबी खिलाने से भी पितृ दोष शांत होता है।
    5 अगर पितृ दोष के कारण अत्यधिक परेशानी हो,संतान हानि हो या संतान को कष्ट हो तो किसी शुभ समय अपने पितरों को प्रणाम कर उनसे प्रण होने की प्रार्थना करें और अपने द्वारा जाने-अनजाने में किये गए अपराध / उपेक्षा के लिए क्षमा याचना करें ,फिर घर अथवा शिवालय में पितृ गायत्री मंत्र का सवा लाख विधि से जाप कराएं जाप के उपरांत दशांश हवन के बाद संकल्प ले की इसका पूर्ण फल पितरों को प्राप्त हो ऐसा करने से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं ,क्योंके उनकी मुक्ति का मार्ग आपने प्रशस्त किया होता है।
    6 पितृ दोष की शांति हेतु ये उपाय बहुत ही अनुभूत और अचूक फल देने वाला देखा गया है,वोह ये कि- किसी गरीब की कन्या के विवाह में गुप्त रूप से अथवा प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहयोग करना |(लेकिन ये सहयोग पूरे दिल से होना चाहिए ,केवल दिखावे या अपनी बढ़ाई कराने के लिए नहीं )|इस से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं ,क्योंकि इसके परिणाम स्वरुप मिलने वाले पुण्य फल से पितरों को बल और तेज़ मिलता है ,जिस से वह ऊर्ध्व लोकों की ओरगति करते हुए पुण्य लोकों को प्राप्त होते हैं.|
    7 अगर किसी विशेष कामना को लेकर किसी परिजन की आत्मा पितृ दोष उत्पन्न करती है तो तो ऐसी स्थिति में मोह को त्याग कर उसकी सदगति के लिए “गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र ” का पाठ करना चाहिए। 8 पितृ दोष दूर करने का अत्यंत सरल उपाय : इसके लिए सम्बंधित व्यक्ति को अपने घर के वायव्य कोण (N -W )में नित्य सरसों का तेल में बराबर मात्रा में अगर का तेल मिलाकर दीपक पूरे पितृ पक्ष में नित्य लगाना चाहिए+दिया पीतल का हो तो ज्यादा अच्छा है ,दीपक कम से कम 10 मिनट नित्य जलना आवश्यक है।
    इन उपायों के अतिरिक्त वर्ष की प्रत्येक अमावस्या को दोपहर के समय गूगल की धूनी पूरे घर में सब जगह घुमाएं ,शाम को आंध्र होने के बाद पितरों के निमित्त शुद्ध भोजन बनाकर एक दोने में साड़ी सामग्री रख कर किसी बबूल के वृक्ष अथवा पीपल या बड़ किजद में रख कर आ जाएँ,पीछे मुड़कर न देखें। नित्य प्रति घर में देसी कपूर जाया करें। ये कुछ ऐसे उपाय हैं,जो सरल भी हैं और प्रभावी भी,और हर कोई सरलता से इन्हें कर पितृ दोषों से मुक्ति पा सकता है। लेकिन किसी भी प्रयोग की सफलता आपकी पितरों के प्रति श्रद्धा के ऊपर निर्भर करती है।
    पितृदोष निवारण के लिए करें विशेष उपाय (नारायणबलि-नागबलि):-
    अक्सर हम देखते हैं कि कई लोगों के जीवन में परेशानियां समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। वे चाहे जितना भी समय और धन खर्च कर लें लेकिन काम सफल नहीं होता। ऐसे लोगों की कुंडली में निश्चित रूप से पितृदोष होता है।
    यह दोषी पीढ़ी दर पीढ़ी कष्ट पहुंचाता रहता है, जब तक कि इसका विधि-विधानपूर्वक निवारण न किया जाए। आने वाली पीढ़ीयों को भी कष्ट देता है। इस दोष के निवारण के लिए कुछ विशेष दिन और समय तय हैं जिनमें इसका पूर्ण निवारण होता है। श्राद्ध पक्ष यही अवसर है जब पितृदोष से मुक्ति पाई जा सकती है। इस दोष के निवारण के लिए शास्त्रों में नारायणबलि का विधान बताया गया है। इसी तरह नागबलि भी होती है।
    क्या है नारायणबलि और नागबलि:-
    नारायणबलि और नागबलि दोनों विधि मनुष्य की अपूर्ण इच्छाओं और अपूर्ण कामनाओं की पूर्ति के लिए की जाती है। इसलिए दोनों को काम्य कहा जाता है। नारायणबलि और नागबलि दो अलग-अलग विधियां हैं। नारायणबलि का मुख्य उद्देश्य पितृदोष निवारण करना है और नागबलि का उद्देश्य सर्प या नाग की हत्या के दोष का निवारण करना है। इनमें से कोई भी एक विधि करने से उद्देश्य पूरा नहीं होता इसलिए दोनों को एक साथ ही संपन्न करना पड़ता है।
    इन कारणों से की जाती है नारायणबलि पूजा
    जिस परिवार के किसी सदस्य या पूर्वज का ठीक प्रकार से अंतिम संस्कार, पिंडदान और तर्पण नहीं हुआ हो उनकी आगामी पीढि़यों में पितृदोष उत्पन्न होता है। ऐसे व्यक्तियों का संपूर्ण जीवन कष्टमय रहता है, जब तक कि पितरों के निमित्त नारायणबलि विधान न किया जाए।प्रेतयोनी से होने वाली पीड़ा दूर करने के लिए नारायणबलि की जाती है।परिवार के किसी सदस्य की आकस्मिक मृत्यु हुई हो। आत्महत्या, पानी में डूबने से, आग में जलने से, दुर्घटना में मृत्यु होने से ऐसा दोष उत्पन्न होता है।
    क्यों की जाती है यह पूजा?
    शास्त्रों में पितृदोष निवारण के लिए नारायणबलि-नागबलि कर्म करने का विधान है। यह कर्म किस प्रकार और कौन कर सकता है इसकी पूर्ण जानकारी होना भी जरूरी है। यह कर्म प्रत्येक वह व्यक्ति कर सकता है जो अपने पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता है। जिन जातकों के माता-पिता जीवित हैं वे भी यह विधान कर सकते हैं।संतान प्राप्ति, वंश वृद्धि, कर्ज मुक्ति, कार्यों में आ रही बाधाओं के निवारण के लिए यह कर्म पत्नी सहित करना चाहिए। यदि पत्नी जीवित न हो तो कुल के उद्धार के लिए पत्नी के बिना भी यह कर्म किया जा सकता है।यदि पत्नी गर्भवती हो तो गर्भ धारण से पांचवें महीने तक यह कर्म किया जा सकता है। घर में कोई भी मांगलिक कार्य हो तो ये कर्म एक साल तक नहीं किए जा सकते हैं। माता-पिता की मृत्यु होने पर भी एक साल तक यह कर्म करना निषिद्ध माना गया है।
    कब नहीं की जा सकती है नारायणबलि-नागबलि
    नारायणबलि गुरु, शुक्र के अस्त होने पर नहीं किए जाने चाहिए। लेकिन प्रमुख ग्रंथ निर्णण सिंधु के मतानुसार इस कर्म के लिए केवल नक्षत्रों के गुण व दोष देखना ही उचित है। नारायणबलि कर्म के लिए धनिष्ठा पंचक और त्रिपाद नक्षत्र को निषिद्ध माना गया है।धनिष्ठा नक्षत्र के अंतिम दो चरण, शततारका, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती, इन साढ़े चार नक्षत्रों को धनिष्ठा पंचक कहा जाता है। कृतिका, पुनर्वसु, विशाखा, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद ये छह नक्षत्र त्रिपाद नक्षत्र माने गए हैं। इनके अलावा सभी समय यह कर्म किया जा सकता है।
    पितृपक्ष सर्वाधिक श्रेष्ठ समय
    नारायणबलि– नागबलि के लिए पितृपक्ष सर्वाधिक श्रेष्ठ समय बताया गया है। इसमें किसी योग्य पुरोहित से समय निकलवाकर यह कर्म करवाना चाहिए। यह कर्म गंगा तट अथवा अन्य किसी नदी सरोवर के किनारे में भी संपन्न कराया जाता है। संपूर्ण पूजा तीन दिनों की होती है।

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When we keep doing shraddh year after year, it means:

  1. We are sure that the atma has not attained Moksha.
  2. We do not believe in reincarnation theory

If I believe in recarnation, then I may be doing my own shraddh (when I do shraddh of all my ancestors).

At the time of death, Pandit ji breaks a wooden stick. It means breaking karmic cycle with that person.
Shraddh is a time to remember good memories with that person. It is time to remember that only our karms go with us. Weask for forgiveness and undoing of karmic entanglements. We take responsibilities of our acts and get strength not to repeat those.

Shraddh come after Ganesh Chaturthi.
Ganesh Chaturthi is the time to remember parents, give them respect, follow their teachings and fullfill their wishes. Ganesh ji made a circle around his parents as he considered them to be his world.
Then we remember all our ancesters in shraddh. It is not an inauspicious time. It is time to take blessings and inspiration from ancestors.
Then comes the Navratre. After taking blessings, we start new things. Navratre means new shakti. It is time to get new shaktis and overcome the evils and weaknesses. When shakti wins over weakness, Dusshera comes.
After Dusshera, Deepawali comes when there is light all around, happiness prevails. All darkness goes away.

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