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मन का खूंटा

चल चल कर थके हुए घोड़े को विश्राम की आवश्यकता होती है। समझदार सारथि इस बात को जानता है। इसलिए जब वह देखता है कि अब उसका घोड़ा चलकर टूट चुका है, चूर चूर हो चुका है तो वह उसे लाकर खूंटे से बांध देता है। उसे पानी पिलाता है, हरी-हरी और रसीली घास खिलाता है और इस प्रकार उसकी सारी थकावट और चूर दूर करके उससे अगले दिन फिर रथ में चलने के लिए नया बना लेता है।
हम भी इस संसार की प्रतिदिन की यात्रा में चलते चलते थक जाते हैं। जीवन यात्रा के लिए हमें प्रतिदिन जिन अनेक प्रकार के संघर्षों में से गुजरना पड़ता है वह हमें तोड़ डालते हैं, चूर चूर कर देते हैं। इस प्रकार चूर हुआ हमारा मन घबरा उठता है। उसे निराशा और हतोत्साहता आ दबाती हैं। उसकी प्रसन्नता और हंसी जाती रहती ह। वह गहरी उदासी और भविष्य के प्रति अंधकारमयी आशाहीनता का स्थान बन जाता है। किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। अनेक लोगों के मनों की तो यह अवस्था हो जाती है कि वह जीवन को ही सहन नहीं कर सकते--आत्महत्या कर लेते हैं। इस प्रकार भटक-भटक कर चूर-चूर और निराश हुए मन्नूठी अश्व को विश्राम देने वाला खूंटा भगवान हैं। भगवान के छोटे से हमारे मन के घोड़े को बांधने वाली रज्जु प्रभु भक्ति से भरी हमारी वाणीयां हैं। जब हम प्रेम में तन्मय होकर भक्ति गदगद कंठ से प्रभु के गुणों का गान करते हैं तो हमारा मन प्रभु के साथ बंध जाता है--उनमें जाकर टिक जाता है। उस समय हमारे मन की जो अवस्था होती है वह अद्भुत है। उस समय प्रेमावरुद्ध कंठे से गाई हुई प्रभु की महिमा और उनके गुणों का विचार पूर्ण चिंतन एवं उनकी करुणा वृष्टि यों का कृतज्ञता पूर्ण स्मरण तथा उनसे विनम्र होकर की हुई शक्ति की प्रार्थना हमारे गमन में एक अवर्णीय शान्ति, प्रसाद, संतोष, उत्साह, आशा, निर्भयता, भरोसे और निष्काम कर्म शीलता की अवस्था उत्पन्न कर देती है। यह अवस्था आज आने के पश्चात हम जीवन संघर्ष से घबराते नहीं--उस से डरकर भागते नहीं। हम में उसका मुकाबला करने और उस पर विजय पाने की उमंग भर जाती है। संसार यात्रा में चलने के लिए हमने फिर से नवजीवन का संचार हो जाता है। इस प्रकार प्रभु के खूंटे पर बांधकर पिया हुआ पानी और खाई हुई घास हमारे थके हुए, निष्प्राण से, मन रूपी घोड़े को फिर से दौड़ने के लिए ताजा बना देते हैं।
मन की घोड़े से दी हुई उपमा में एक रहस्य है। जिस प्रकार घोड़ा शक्ति से भरा होता है उसी प्रकार हमारा मन की शक्ति का भंडार है। यदि सारथी घोड़े को वश में रखे और सुमार्ग में चलावे तो वह मनोंभार में लादकर ले जा सकता है और अपने ठिकाने पर पहुंच सकता है। पर यदि घोड़ा वर्ष में ना हो और उसे सुमार्ग में ना चलाया जाए तो वह सारथी को गड्ढे में गिरा कर मार देगा। इसी प्रकार यदि हम अपने मन को वश में रखें और उसे सुमार्ग पर चलावें तो हम उसे भक्ति भक्ति के अपने और परोपकार के कार्य कर सकते हैं और जीवन की समाप्ति पर जीवन के अंतिम ठिकाने मोक्ष धाम में पहुंच सकते हैं। पर यदि मन हमारे वश में ना हो और उसे सुमार्ग पर ना चलाया जाए तो वह हमें पाप के गड्ढे में गिरा कर हमें खराब कर देगा।
'सन्दितम्'शब्द का मूल अर्थ है--खंडित अर्थात टूटा हुआ,फटा हुआ। पशुओं के संबंध में इसका अभिप्राय'थक कर चूर- चूर हुआ'ऐसा है। यह हम ऊपर देख चुके हैं। 'सीमहि'का अर्थ होगा 'हम हीते हैं।'इसलिए 'सन्दितम्' और 'सीमहि'का अर्थ होगा 'हम फटे हुए को सीते हैं'
ऐसे अर्थ की झलक भी दे सकते हैं। इन दोनों पदों के इस अर्थ की झलक से भी एक बड़े सुंदर भाव की प्रतीति होती है। यदि किसी का कोई वस्त्र फट गया हो तो वह उसे धागे से सीकर ठीक कर लेता है और वह वस्त्र एक प्रकार से फिर नया बन जाता है। इसी भांति यदि हमारा मन हमारे पापाचरणों से खंडित हो गया हो, जर्जरित हो गया हो, काम ना कर रहा हो तो निराशा होने की आवश्यकता नहीं है। प्रभु की शरण में आओ। उसकी भक्ति करो। प्रभु की भांति रूप धागों से चलकर हमारा मन फिर से नया और काम का हो जाएगा।
हे मेरे आत्मा! यदि तू सूख जाता है तो अपने मन के घोड़े को भक्ति की रस्सी से प्रभु के खूंटे से बांधने का अभ्यास कर।

             वैदिक मन्त्र  

वि मृडीकाय ते मनो रथीरश्वं सन्दितम्।
गीर्भिर्वरुण सीमहि।।ऋ•१.२५.३

     वैदिक भजन ९३१ वां  
          राग खमाज  
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर  
      ताल दादरा ६ मात्रा  

चलते-चलते यात्रा से हम थक जाते हैं
जीवन यात्रा में संघर्ष को पाते हैं
चलते-चलते......
जब संघर्ष से हमको गुजरना पड़ा
थक के हो गए चूर तो रुकना पड़ा
जब निराशा में मन घबराने लगा
गहरी चिन्ता उदासी से घिर जाते हैं।।
चलते-चलते.......
घोड़े को चलते-चलते विश्राम चाहिए
जो सवार है,उसे बुद्धिमान चाहिए
जल पिलाए उसे खूंटे से बांध कर
वह उसे रसमय हरी घास खिला जाते हैं
चलते-चलते.......
अश्व मन रूपी चाहे विश्राम सुगम
हाथ में खूंटा लिए बैठे भगवन्
वाणी भक्ति का रूप है रज्जू प्रशम
कंठ भक्ति से गदगद हो जाते हैं।।
चलते- चलते......
जब प्रभु की भक्ति में बंध जाता मन
प्रेम अवरुद्ध होकर के गाता भजन
जब कृतज्ञता से पूर्ण करें प्रार्थना
शक्ति, शान्ति, संतोष, उत्साह पाते हैं
चलते- चलते.......
कर्मशीलता निर्भयता आत्मप्रसाद
उत्पन्न करता ना हममें विघातक प्रमाद
भागते ना हम डर के, ना पाते विषाद
विजय पाने में उत्साह हम लाते हैं।।
चलते- चलते........
खूंटे से बंध के पाते हैं हम प्रभु से भोग
होते हैं प्राणमय दुःख के हटते हैं रोग
दौड़ने को हो जाते हैं फिर से सक्षम
मन के रथ में सुमार्ग- गति पाते हैं।।
चलते- चलते........
मन हमारा जब पापों से हो 'संदीतम्'
तो निराशा को छोड़, ले प्रभु की शरण
सी ले भक्ति के धागे से विक्षिप्त मन
आत्मा चल, प्रभु के खूंटे से बंध जाते हैं।।
चलते- चलते........
८.२.२०२२
८.२५ रात्रि
शब्दार्थ:-
सुगम= आसान
रज्जू= रस्सी
प्रशम= शान्त
अवरुद्ध=रुका हुआ
विघातक=मारने वाला
प्रमाद= आलस्य
विषाद= दु:ख
सक्षम=के लायक
संदीतम्=थक कर चूर हुए
विक्षिप्त=परेशान, पागल

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